प्रियंवदा का परिताप || Diary ||

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भादो की उजियारी चौदस का चंद्र व्योम में निर्विघ्न विचर रहा है.. पवन की गति सामान्य से कुछ अधिक है। खुला मैदान, घास की बिछी चादर... कुल मिलाकर वातावरण तो प्रफुल्लित मन को और प्रफुल्लित कर रहा है..! हाँ, कोई कोई रक्तपिपासु मच्छर इत्यादि गुनगुनाते है लेकिन हवा उन्हें अपने साथ दूर उड़ा ले जाती। पास ही भारत का सबसे व्यस्त पट्टन (बंदरगाह) होने के कारण चलते ट्रकों ने पर्यावरण में प्रदूषण की बढ़ोतरी करने की कोई कसर छोड़ी नही है, इसी कारण से कोई बड़ा और ज्यादा चमकदार तारक ही मेरे अंतरिक्ष में टिमटिमाता है।



"हाँ तो अब एक अनुच्छेद (पेरेग्राफ) तो लिख दिया, आगे?" प्रियंवदा डायरी बोली।


"आगे तुम बताओ?" अपन ठहरे वेल्ले, दैनंदिनी को ही विषय पूछ लिया।


"अच्छा ! अवधारणा भी मैं ही दूँ? तुम कुछ ज्यादा ही आलसी नही हो रहे आजकल? पूरा दिन इंस्टा और वॉट्सऐप पर ऑनलाइन बैठे रहते हो..!" प्रियंवदा तो वाद पर उतर आई, इसका ऐसा ही है, उंगली दो तो गला पकड़ने में झिझकती नही।


"कुछ नही यार, आज श्रमिकों ने छुट्टी रख ली, तो काम कुछ था नही, मैने आंशिक छुट्टी का सदुपयोग रोकड़ से खातों में कलमे उतारने में कर लिया। अब कुछ लिखने की सोच रहा हूं, बता दो यार कुछ आइडिया हो तो.."


"मुझे न तुम कभी कभी एक्वेरियम की मछली लगते हो.." प्रियंवदा तो रूपक भी देती है।


"वो क्यो भला ?"


"तुम एक पानी भरी पेटी में कैद हो, लेकिन तुम्हे पता ही नही.. तुम्हे बस दाना मिल जाता, टहलने के लिए यह पेटी पर्याप्त है, तो तुम्हे लगता है तुम सेट हो गए हो.." पता नही क्यो लेकिन बात तो सही कही प्रियंवदा ने..!


"तो तुम क्या चाहती हो ? यह सब छोड़-छाड़ के भटकता फिरूँ?"


"इसे छोड़ोगे तब भी जाओगे कहाँ? तुम्हारे साथ है कौन ?"


मैने कपाल पर कलम घिसते सोचकर लिखा, "है ना, मेरे बहुत मित्र है.."


"अच्छा, वह छोड़ो, मैं यदि तुम्हे कायर कहूँ तो क्या वह सत्य होगा ?" प्रियंवदा बात को कहीं तो ले जा रही थी।


"कायर क्यों ? मेने कौनसा कायरतापूर्ण कार्य कर दिया ?" मैंने झुंझलाते कहा।


"तुम तो अपनो से भी बाते नही करते.."


"तो क्या हुआ ? मोबाइल चेटिंग से हालचाल जान लिया उसे बात करने की श्रेणी से निकाल दिया गया है क्या ?"


"ऐसे नही, तुमने ही तो अपने पिछले लेखों में लिखा है कि तुम किसी से बात करने में झिझकते हो..!"


"हाँ, वो तो है.. यूं तो मुझे स्टेजफीयर भी है, तो उसे कायरता कैसे कह दूं?" मेने भय से पल्ला झडकते कहा।


"यूँ तो तुम बड़े कल्पनाश्वसवार होकर लिख देते हो अपनी कल्पित प्रेयसी के श्रृंगार को, क्या कभी सम्मुख होकर बखान के दो बोल भी कहे है या वही कायरता आड़े आ जाती है..?" इसका नाम प्रियंवदा रखने पर पश्चाताप करने का अभी समय न था।


"तुम्हे तो पता ही है सब.. हाँ, मेरे हाथ कांपने लगते है, बोलना कुछ और होता है, मुंह से कुछ और ही वाक्य निकल पड़ते.. लेकिन उसे कायरता क्यो कही जाए ?"


"चलो मैं तुम्हारी ही हूं इस लिए मान लेती हूं, लेकिन सत्य जितना जल्दी स्वीकारो उतना सही रहता है यह तुम भी जानते हो..! तुममे आत्मविश्वास के सुधार की आवश्यकता है।" आज तो प्रियंवदा अलग ही स्तर के पटल खोल रही थी।


"अच्छा, अब तुम मुझे सिखाओगी ? जरा चलकर दिखाना.." मैंने जड़ दैनंदिनी को उसकी वास्तविकता से मिलाने का प्रयास किया।


"ओह, तो तुम अब वर्ज्यस्थली पर वार करोगे ? ध्यान रहे तुम्हारे सारे रहस्य मुझे ज्ञात है, किसी के हाथो में जाकर सब उगल सकती हूं मैं। ध्यान रहे।" धमकी देते प्रियंवदा ने अपना पन्ना पलटा।


"तुम भी ना, बड़ी जल्दी रूठ जाती हो.."


"तुम स्वयं कभी स्वीकारते नही, की तुम जेरोक्स मशीन हो.." प्रियंवदा पता नही आज क्या खाकर बैठी है।


"यार तुम बड़ी अजीब हो, कभी मछली कहती हो, अब जेरोक्स मशीन कह रही हो.."


"हाँ, क्योंकि तुम जो पढ़ते, सुनते हो, उसी की प्रति-छाया लिख देते हो, मेरे श्वेत-बेदाग़ पन्नो को उस कर्कशी से खरोंचते हुए.."


"देखो तुम मुझे तो क्या का क्या कहती रहती हो, मैं सह भी लेता हूं, लेकिन इस लेखनी का क्या दोष, जो उसे कर्कशी कहती रहती हो.."


"वह कर्कशी ही है, तुम्हारी कल्पनाओं को वह अक्षर स्वरूप देकर मुझे क्षतिग्रस्त करती रही है।"


"अच्छा ! यह सब छोड़ न यार.." मैंने विषय बदलना चाहा।


"तुम फिर से yq पर जाओ.."


"क्यो ?"


"तुम्हे वैसे भी किसी की छांया में लिखना होता है, पढ़ते रहना, सुनते रहना, लिखते रहना..!"


"तुम्हे तो पता है, मैं मुखौटे वाला हूं, जिनसे मन लगा उनके लिए तो मैत्री की चरम पर जाता हूं, वहाँ yq वाले सारे मित्र अलविदा ले गए.. अब वहां अकेलापन अनुभव होता है।"


"तुमसे कुछ न हो पाएगा.. तुम बीमार हो, तुम्हे लोगो से दूर भी रहना है और लोगो के बगैर भी नही रहना।" प्रियंवदा ने प्रवचन देते कहा।


"यार तुम इत्ती सी हो लेकिन बाते बखूबी कर लेती हो, कबसे पतंग के मांजे की तरह लपेट रही हो, इतनी देर में तो मै मेरी प्रेयसी के कपाल पर सुशोभित राते सूर्य की संध्या समय की लालिमामय रत्न सा तेज ली हुई बिंदी का बखान कर लेता।"


"हाँ यही करो तुम, श्रृंगार और विरह.. अमावस्या के शशि सा तुम्हारा वदन, और फ़टे बांस सी आवाज तुम्हारी, चले हो लेखक विचारक बनने, मेरे सिवा तो तुम्हारी जिह्वा जकड़ जाती है..!" प्रियंवदा भी प्रहार करती है।


"श्रृंगार और विरह यूँ तो परस्पर वेरी है, लेकिन पूरक भी.. विरही अपने लेखन में प्रेयसी के श्रृंगार का, प्रासंगिक क्षणों को अभिव्यंजक रूप से वर्णन कर लेता है, लेकिन श्रृंगार का साधक विरह की वेदना को वर्णित करने में करोड़ो बार अटकता है.. विरह की कल्पना मात्र ही उसे काटती है।"


"अच्छा ! तुम तो ढोंगी भी हो।" प्रियंवदा प्रहार का अनन्य अवसर भी नही छोड़ती।


"अब ढोंगी क्यों हूं मैं ?"


"मुझे याद है, तुमने कहा था कि तुम किसी से नजर मिलाते समय पहले खुद की परिस्थिति स्थिर होने की कल्पना कर स्वांग रचते हो कि उनकी नजर में तुम कैसे दिखोगे.."


"मेरी प्यारी प्रियंवदा, तुम आजकल बहुते बोलने लगी हो..!"


"पूरा दिन तो उस सड़ी सी अलमारी में पटके रहते हो, घड़ीभर मेरा साथ भी तुम्हे रास नही आता ?"


"इमोशनल डेमेज ?"


"हाँ, कौनो दिक्कत ?"


"दिक्कत यही है, की तुम्हे समझना मतलब टेढ़ी उंगली से घी निकलना।"


"उसका भी उपाय है, चाहो तो आजमाओ.."


"बताओ उपाय !"


"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज.."


बस, यही तक संवाद चला, फिर मैंने अर्धरात्रि के तृतीय प्रहर में इससे ज्यादा तर्क लड़ाना भी उचित नही समझा।


|| अस्तु ||


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  1. प्रियंवदा के तीखे प्रहार 😂🤣

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