विश्वास || TRUST || Diary ||

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विश्वास.. विश्वास पर क्या लिखा जाए ? यही की कच्चे सूती से भी कमजोर होता है विश्वास, धक्के मात्र से टूट जाए। या यूं कहूँ की विश्वास रूठी रानी सा है, पुनः लौट के नही आता। पता नही.. आजकल मैं "पता नही और क्या पता" बहुत कर रहा हूँ। अपनी शायद सबसे बड़ी समस्या ही यह है कि हम हर किसी पर पहले तो सरलता से भरोसा कर लेते है। कोई कोई तो उस भरोसे पर खरा उतरता है, लेकिन ज्यादातर.. भरोसे को भंग करके आगे बढ़ जाते.. और हम.. वहीं थम जाते। जैसे सारा संसार ही रुक गया..! 



हालांकि कुछ गलतियां हमारी भी होती है, हमारी उनके प्रति की एक्सपेक्टेशन बढ़ जाती है.. धीरे धीरे हम उनके प्रति बेफिकरे होने लगते है, धीरे धीरे दूरी बढ़ती रहती है.. जो हमे पता ही नही होती। हम अपनी व्यस्तता के कारण समय नही दे पाते, या फिर बेफिजूल के कारणों के पीछे अपना समय खर्च कर देते है, और फिर उनकी बारी आई तब समय का अभाव.. और हम सोचते है यह तो अपने है.. इनसे कैसा भेद ? इन्हें समय न दिया तो क्या हो जाएगा ? लेकिन वे भी हम पर विश्वास किये हुए है, हमे भी तो उनके विश्वास पर खरा उतरना था ! पर हुआ क्या, दूरी बढ़ती गई, इतनी बढ़ गई कि संबंध में मिठाश तो दूर, संबंध ही न रहा...


विश्वास चैस के प्यादे समान है, आगे बढ़ सकता है, पर पुनः लौटना सम्भव नही। लोग अक्सर ठोकरे खाते है, क्योंकि हमारे स्वयं की अपेक्षाएं कुछ अधिक ही होती है.. फिर सामने वाले पर हमारी अपेक्षाओं का भार आ पड़ता है..! यह सब होता होगा, क्योंकि विश्वास का अस्तित्व है, विश्वास के अस्तित्व पर ही संबंध स्थापित होते, नए समीकरण जन्म लेते है, नया अध्याय आरम्भ होता है, प्रक्रियाए घटित होती है, फलीभूत होती है। परिणाम बनते है.. और फिर आता है यक्षप्रश्न सा सवाल... क्या इस परिणाम से संतुष्ट है ? यदि है तो कितनी संतुष्टि है? अगर नही तो वही उसी क्षण विश्वास का भंग होता है ठीक उसी प्रकार जैसे दक्ष के यज्ञ का हुआ था.. और प्रकट होता है वीरभद्र.. विनाश को उत्तेजना दी जाती है.. चाहे स्वयं का ही विनाश क्यो न हो? जिंदगी में हम सब एक-दूसरे के प्रति विश्वास के बंधन से ही जुड़े है। या फिर वह एक ऋणानुबंध का सिध्धांत है वह कारणभूत हो.. किसे पता ?


किसी वस्तु या भावना के प्रति एक निश्चित धारणा बंध जाए वह होता है विश्वास। अच्छा, विश्वास का एक गेरलाभ यह है की किसी पर पूर्णतः विश्वास करो फिर अपनी मति के तो ताले लग जाते है, बस उसने कहा दिन है, हमने मान लिया, बिना किसी सवाल के, बिना किसी प्रमाण के। क्यों ? क्योंकि हमे उसके प्रति सद्भाव है, हितैषिता, दृढ़ता है। प्रेम का तो आधारस्तम्भ ही विश्वास है। और जिस दिन विश्वासभंग हुआ, पूरा महल पत्तो की तरह ढह जाता है। 


विश्वास का टूटना, या धोखा खाना कोई नई बात नही है, सदियो से होता आ रहा है, भेद इतना सा है कि हमारी स्वयं की सहनशीलता कितनी है ? आज किसी पर भरोसा करकर सीढ़ी चढ़ रहे है तो भरोसा बना रहना भी जरूरी है, वरना चढ़ने के बजाए ध्यान दूसरे कल्पित परिणामो की और लगने लगेगा..! हर कोई हर पल कितने दगे अपनी छाती पर झेलता होगा.. लेकिन अगर दगे से हुए उस घाव को कुरेदने के लिए वहीं रुक गए तो, "मैं ठहरा रहा, जमीं चलने लगी.." दौड़ती जिंदगी की रेस में हम बहुत पीछे छूट जाएंगे और परिणामस्वरूप वास्तविकता से तालमेल बिठाने में अधिक समस्या होगी..! 


धंधे से लेकर, प्राण तक विश्वास पर टिका है.. यूँ तो क्या भरोसा अगले पल क्या होगा ? पर फिर भी हम आने वाले दिनों की प्लानिंग्स करके रखते है न..! साहित्यिक दृष्टिसे देखे तो सबसे दुर्बल विश्वास दिखता है प्रणयी प्राणों का। शायद ही कोई कॉलेज के प्रणय से दूर रह पाया हो.. शायद ही किसी ने उन दिनों में विश्वासघात न सहा हो..! वह उम्र ही ऐसी है, ठोकरे खाने की.. जल्दबाजी में निर्णय लेने की.. और फिर एक गलत निर्णय हम ले लेते है..! वह ज्यादातर प्रसंगों में सेम ही होता है, सातो जन्म साथ रहने का वादा कर बैठते है.. निभाने भी चल पड़ते है.. न जमाने की परवाह..! कुछ लोग भाग्य पर भी दांव खेलते है, होगी वह देखी जाएगी सोचकर कूद पड़ते और फिर मुंह की खाते है..! अभी वे जो जमाने से बेपरवाह हुए निकल पड़े थे, उनकी कसौटी भी आगे होती है। जिंदगी उनकी क्षमता, कौशल्य का निचोड़ लेती है.. उनकी सहनशीलता धीरे धीरे पस्त होने लगती है, और फिर.. दोनो में से एक हारकर देता है धोखा.. ब्रह्मास्त्र सा अचूक.. और फिर होता है घाव.. फिर मरहम की तलाश.. हल्दी के बदले फिर कोई उस पर नमक रगड़ जाता है.. क्योंकि उसने फिर से पूर्णतः विश्वास करने की भूल की.. और फिर घाव पड़ा हिस्सा सड़ता है, पस लगता है, आंखों से अखंड रुधिर बहता है, धीरे धीरे वह इतना निष्ठुर हो चलता है, की अब उसे कुछ भी महसूस नही होता.. वह दृढनिश्चयी हो चला है, विश्वास शब्द पर ही अब उसे विश्वास नही। अनेको घाव के पश्चात भी वह धीरज से आगे तो बढ़ता है, लेकिन लंगड़ा रेस में क्या दौड़ेगा ? जिंदगी की रेस में पीछे छूटने लगता है.. धीरे धीरे वह अनुभव करता है, उसे अब किसी के सहारे की आवश्यकता है.. पर क्या हो जिस लाठी के भरोसे अब वह चलने लगा है, वह भी टूटने को आतुर हो ? धीरे धीरे वह अपनी कल्पनासृष्टि में ही रहने लगा.. बाहरी संपर्कों से दूर.. पर कब तक.. वहां भी तो घुटन होती होगी.. वह फिर से एक बार अपना भूतकाल झाड़कर आगे बढ़ने की कोशिशों में जारी हुआ.. किसी का कंधा पकड़कर, किसी के पैरों में लिपटकर, दयनीय ही सही.. लेकिन क्या स्थिति हुई बस विश्वास पर विश्वास करने के कारण..!!!


बिल्कुल ऐसा भी नही है..! यही प्रसंग को दूसरे दृष्टिकोण से देखे तो, यदि वह अपनी अपेक्षाएं कम रखता, विश्वास टूटने के बाद भी स्वयं न टूटता.. कृतनिश्चयी होकर हिम्मत बांधे रखता तो..? तो मुझे लगता है वह टूटे हुए कांच के बारदान को किसी ने जबरजस्ती जोड़ा हो.. ठीक उसी अनुसार होता.. और फिर क्या, हवा का एक झौंका लगता और फिर से बिखर जाता..!!!


कुछ परिस्थितियाँ ही ऐसी निर्माण होती है.. और विश्वास की तो लाक्षणिकता है कि वह स्वयं दुर्बल है। आज ही पढा था, बचपन मे तो हम ऐसे न थे, पेड़ पर चढ़ जाते थे, अब कोई कहे कि चढो तो? भय तो वहां पहले से था गिरने का.. साहस करके यदि चढ़ भी लिया जाए तो उतरने में तो स्वयं पर विश्वास न ही आ पाएगा, की जरूर पैर फिसलेगा, गिरेंगे, चोट लगेगी.. क्यों? क्योंकि हमने परिणाम सोचा, परिणाम की संभवित कल्पना हमे विश्वास से अधिक मजबूत लगी..! भेद वहां पड़ जाता है कि बचपन मे हम पर अन्य कोई बोजा न था। अब है, कई सारी जिम्मेदारियां निभानी है, संबंध स्थापित करने है, रिश्ते जोड़ने है, कमाने की कामना है, नामना भी तो होनी चाहिए.. फिर अब हम फूंक फूंक कर कदम रखते है। कहीं यहां कदम भरा और वह दलदल हुआ तो ?


क्या हो किसी एकनिष्ट पुरुष का जब उसकी स्त्री ही उससे छल कर रही हो ? तथापि वह स्त्री जिस पर विश्वास करके अपने पुरुष को छल कर रही हो उस विश्वासी की भी कोई अन्य प्रेयसी हो तो ? समाज भर्तृहरि को पाता है। पिंगला को जीवनभर का पश्चाताप मिलता है। लेकिन यह सब पढ़ने तक ही सिमित रहे वही अच्छा है कदाचित। क्या बीतेगी आज उस पुरुष पर जिसकी स्त्री उससे विश्वासघात कर रही हो। पुरुष ही क्यों ? यह भी तो कई बार होता है की पुरुष अपनी स्त्री से विश्वासघात कर किसी और दिशा में गमन कर जाता है। कदाचित कोई शस्त्र का दिया घाव विश्वास पर हुई चोट जितना हानिकारक नहीं होता.. क्यों ? 


विश्वास को टिकाए रखना एकपक्षी क्रिया तो है नहीं, अपनी और से हमने अपनी नीतियाँ सर्वोपरि रखी, लेकिन दूसरे पक्ष से ? उनके आचार पर तो हमारा नियंत्रण नहीं ? फिर अगर विश्वासघात हुआ भी तो हमारा दोष क्या? फिर हम उस विश्वासघात का बोज अपने ऊपर क्यों ढोते है ? लगातार उसी को केंद्रबिंदु मानकर परिक्रमा करते रहते है। क्यों ? विश्वास टुटा है, आशा फिर भी बनी रहती है। और यह अमर आशा ही शायद उबरने नहीं देती। पता नहीं.. कई कारण होते है, कुछ प्रत्यक्ष, कुछ परोक्ष..! कहीं कुछ गोपनीयता बनाई रखनी पड़ती है, कहीं तो खुली किताब भी बनना पड़ता है.. जैसी स्थिति वैसी प्रतिक्रिया, हम हर जगह यह सिद्धांत पर अड़े रहते है, जैसी क्रिया वैसी प्रतिक्रिया, पर जब विश्वास की बारी आए तब  ?


शायद लगातार विश्वास टूटने से विश्वास के ऊपर से श्रद्धा खोना ही हमारी पराजय है। मुझ जैसा कोई अतडू, जीवनभर लंगड़ाकर खुश रहता है, लेकिन विश्वास पर विश्वास करने का साहस.. नही करता। कतई नही..! भीरुता जब घर कर जाए, नया साहस खेड़ने से वह पीछे हटने लगे, नए लोगो से घुलने-मिलने में समय ले, कल्पनासृष्टि में विचरता रहे, बेसुध सा बना रहे, यह सब मंजूर है पर विश्वास..? वह तो बस दोहराता रहता है, "जैसे छीलर ताल जल, घटत घटत घट जाए.."


|| अस्तु ||


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