कोटाय का सूर्य मंदिर या शिव मंदिर, कल के अधूरे सफर की पूर्णाहुति || SUN TEMPLE OR SHIV TEMPLE OF KOTAY, KUTCH / KACHCHH ||

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आज रक्षाबंधन थी, सवेरे जागते ही फ्रेश होकर महादेव के मंदिर जाकर जल चढ़ाया। फिर पहुंचा भगवान जगन्नाथ के शरण.. पंडित जी ने हाथ मे राखी बांध दी..! घर आकर नित्यक्रमनुसार ऑफिस के लिए निकल लिया।


कम्प्यूटर ऑन किया, कल का लिखा हुआ सफर ब्लॉग पर पब्लिश किया। साइड टेब में गूगल मैप्स खोले.. और बस फिर से कोटाय सूर्य मंदिर को देखता रहा। लोगो के लिखे रिव्यूज़ भी पढ़ रहा था, उतने में फोन की घंटी बजी..! फोन बिना देखे ब्लूटूथ से उठाकर कहा,

"हेलो"

"भाई चले क्या?" सामने से पत्ता सीधा ही बोला।

"अब कहाँ?"

"वहीं..!"

"ठीक से फटाकर बे.. ये लंबी बत्ती वाले पटाखे मुझे पसंद नही..!"

"तू ट्यूबलाइट आधी बात समझता ही नही है ना? अरे मैं कह रहा हूँ कोटाय चले क्या सूर्य मंदिर"

मैंने कम्प्यूटर पर खुले गूगल मैप्स में लोगो ने शेयर किए फोटोज देखते हुए, "हाँ भाइ, जाना तो है लेकिन कार तो जाएगी नही.."

"तो बाइक लेके चलते।"

"मुझे समस्या नही है, पर तु इतना लंबा बैठ पाएगा?"

"ले, मुझे कौनसे पाईल्स है, चल भाई ! आधी ट्रिप छोड़कर मजा नही आ रहा.."

"अरे नही यार, मैं ऑफिस आ चुका हूं, अब छुट्टी कौन मांगे?"

"अबे आज तो रक्षाबंधन है, छुट्टी ही होती है, लेनी थोड़ी पड़ेगी?"

"हमारी मिल चालू है बे, लेबर ने चालू रखी..!"

"अब बहाने छोड़, चलता है तो चल ले.."

"करता हूँ कुछ रुक.."

मैने इधर उधर फोन घुमाके जो जो काम थे, या काम पड़ सकते थे उन्हें निपटा दिया, या दूसरे दिन पर टपा दिए..!

लगभग साढ़े ग्यारह बजे से मैं ऑफिस से निकल लिया, बारह बजे तक पत्ते को भी पिकप कर लिया..! अपनी नई नवेली fzx अपनी पहली ट्रिप को तैयार थी। रोड पर चढ़ते ही मुझे अपनी पुरानी बाइक-ट्रिप्स याद आने लगी, लगभग तेरह साल पुरानी मेरी पहली मोटरसायकल स्प्लेंडर प्लस थी, और उसे मैं कहाँ नही ले गया था? लगभग दोसो किलोमीटर के व्यास में हर जगह मैं उस पर गया था। नदी के पानी मे उतारी थी, बिना रास्ते के सीधे खड़े पहाड़ पर चढ़ाई थी, खारे नमक भरे रण में भी आधे टायर तक जमीन में धँसाई थी। आसो मास की नवरात्रि में खरीदी हुई और तेरह साल के साथ निभाने वाली मोटरसायकल को गत अप्रैल महीने में चैत्री नवरात्रि में विदा दी..! और यामाहा की fzx चैत्री नवरात्रि में ली थी। आज उसी पर लगभग 170-80 किलोमीटर टूटे-फूटे रोड और जहां रोड नही है वहां भी चलानी थी।

लगभग कुछ ही दूर चलते गडकरी साहब के निर्माणाधीन रोड पर आ पहुंचे.. साहब कहते है मेरे बनाए रोड की दोसो साल की गेरंटी मेरी है.. लेकिन हमारा एरिया शायद अपवाद है..! वैसे साहब भी क्या कर लेंगे, दिन के हजारों ट्रक गुजरते है इस रोड से..! कांडला और मुंद्रा चौबीसों घंटे चालू ही रहते है..!

आज हाइवे छोड़कर हमने गांवो से जाने का इरादा किया। सही था, हाईवेज़ पर चलते ट्रक धूल उड़ाते है.. छुट्टी का दिन था तो लोकल ट्रैफिक भी ज्यादा रहता है..! गांवो के रॉड खाली भी मिलते है, और दोनों ओर हरियाली भरे खेत-खलिहान कॉन्क्रीट के जंगलों से तो बहुत बेहतर है।

छोटे छोटे गांव, आंबापर, लाखापर, सतापर, रापर और कनैयाबे होते हुए भचाऊ-भुज वाले नेशनल हाइवे पर पहुंच चुके थे। fzx को भागने के मामले में और राइडिंग कम्फर्ट में पूरे नंबर मैंने ही दे दिए..! रास्ते भर में कहीं जुवार, तो कहीं कपास, कहीं इजराइली-खारेक के वृक्ष तो कहीं अनार के बागान, कहीं कहीं ड्रेगनफ्रूट जिसे आजकल कमलम फल नाम दिया गया वह राक्षसी पौधे भी आडेटेढे फैले हुए थे..! मतलब विदेश में पढ़े हुए की ज्यादा कीमत होती है वह प्रत्यक्ष द्रष्टा है..! अपने यहाँ खेतो की बाड़ में ऐसे ही फालतू उगते हाथला-थोर (केक्टस) में उगते फिन्डले (फल) की कोई किम्मत नही, लेकिन चाइना से आए उसी केक्टस के विचित्र भाई में उग रहे ड्रेगनफ्रूट बाजार में बहुत दाम देते है..!

खेर, मैं बस मोटरसायकल को भगाए जा रहा था। कनैयाबे से धाणेटी जाते एक छोटी सी होटल पर स्टॉप लिया.. चा पी..! एक सिगरेट सुलगाई.. लगभग डेढ़ महीने बाद आज धूम्र का सेवन किया..! बहुत दिनों बाद आज बाईकराइडिंग कर रहा था, इतनी छूट तो ले ही सकता हु, स्वंय को ही ऐसा दिलासा देते फिर से राइड शुरू की। पत्ता पता नही किस मूड में था.. पीछे बैठा चिल्ला-चिल्ला कर गाने गाए जा रहा था।

धाणेटी गांव से पहले ही नाडापा गांव के लिए रास्ता मुड़ता है। कभी कांडला जाओ, और पोर्ट से बाहर आओ तब पूरे काले-कट्ट होकर निकलोगे, इतना कोयला उड़ता है वहां.. यहां नाडापा में भी सेम हाल है खाली रंग का फर्क है.. यहां सफेदी बहुत है..! भु उत्खनन करके खनीज निकाला जाता है। चारोऔर बस सफेद खनिजों बड़े बड़े ढेर ही लगे हुए है.. आज कड़ी धूप थी, बादल थोड़ी देर भी छांव करने को रुक नही रहा था, पवन की गति भी शायद तीस की.मि. प्रति घंटा रही होगी। चारोओर से उड़ता सफेद पाउडर, और इन्हें ट्रांसपोर्ट करने के लिए तेजी से गुजरते डंपर ट्रक्स.. मुझे मोटरसायकल समेत हिला देते। एक जगह तो ट्रक को ओवरटेक करने के चक्कर मे टायरों में आते बचे, पत्ता तो वहीं उतर गया..! "बस भाई, थोड़ी देर रोक ले.."

"अबे डरता क्यों है, जो होगी, देखी जाएगी, बैठ जा जल्दी से।" मैंने उसे थोड़े धमकाते फुसलाते वापस ट्रिप ऑन करने को मना लिया।

नाडापा गांव पार करते ही ढेर और बड़े हो गए, रोड पर भी इन्ही खनीज का ही साम्राज्य था। ट्रांसपोर्ट करते ट्रकों से गिरते खनिज के कारण रोड तो दिख ही नही रही थी.. मानो रेत के टीलों में बाइक चला रहे है..!

आखिरकार काली सड़क देखकर कुछ उत्साह आया, नाडापा से आगे छोटी-मोटी  पहाड़िया है, पिछली बार इन्ही पहाड़ो की गोद मे बसे हबाय गांव में स्थित वाघेश्वरी के स्थानक पर गया था, और फिर स्प्लेंडर को पहाड़ पर चढ़ाई थी..! नाडापा के बाद और हबाय से पहले छोटा सा बीहड़ है.. वृक्षो वाला जंगल नही, कोई छोटे-मोटे पौधे और बंजर जमीन वाला बीहड़, बात शायद एक ही है पर बीहड़ शब्द थोड़ा डरावना लगता है..! एक जगह मोटरसाइकिल रोकी।

मैं और पत्ता बीहड़ में पैदल आगे बढ़े, पथरीली जमीन, सूखा घास, कुछ समय पूर्व ही किए गए वृक्षारोपण के क्यारे, ऊपर दूर दूर बहते बादल, उन बादलो को चीरते दो फाइटर जेट तेज आवाजो की गर्राहट करते गुजरे, पाकिस्तान नजदीक भी बहुत है यहां से, पास ही इंडियन एयरफोर्स का बेझकेम्प भी है। तो यहाँ कई बार फ्लाइट्स उड़ती रहती है, और गगन में गर्जना करती अपनी शक्ति का परिचय भी कराती है। थोड़ा पैदल चलते चलते मैंने पत्ते से कहा,

"पता है तुजे यहां तेंदुए रहते है।"

"क्या कहा?" पत्ता वही रुक गया।

मैंने पीछे मुड़कर कहा, "वो बरगद दिख रहा है? बस वहीं जाना है।"

"नही पहले क्या कहा था, तेंदुए है यहां?"

"हाँ लाला ! चल ले, एक जगह रुकना नही..!"

पत्ते ने चलने में त्वरा दर्शाई। और हम पहुंच गए। कुदरत की बनाई अलौकिक जगह है यहां। हम बरगद के ऊपर थे। लगभग पचासेक फुट गहरी खाई थी, उस खाई में बरगद उगा है, और हम खाई के किनारे ऊपर खड़े है तो मानो बरगद और हम खड़े थे वह जमीन समतल दिखती है..। अमरीका का प्रख्यात ग्रैंड कैन्यन की छोटी सी प्रतिकृति कुदरत ने यहां भी सरजी है। किसी समय मे क्या पता सिंधु का प्रवाह यहां से निकलता हो.. एक समय ऐसा भी था कि कच्छ चारो ओर से पानी से घिरा एक टापू(द्वीप) हुआ करता था, तो यहाँ से कोई जलस्त्रोत ही पसार होता होगा..! उन्ही प्रवाहो से घिसकर यह खाई आज लाल-गुलाबी धारियो वाली चट्टानों सी दिखती है..! इस गहरे भूभाग में अब वर्षा ऋतु में नदी बहती है। वह भी कुछ ही देर के लिए, पहाड़ो से रीसा पानी यहाँ से बहता हुआ बस अदृश्य हो जाता है। लेकिन प्रकृति ने बनाई यहाँ छोटी-मोटी गुफाओ में वाकई कुछ दिन पहले एक तेंदुआ दिखा होने का समाचार मैंने पढा था।

कुछ पवनो की तीव्र लहरों ने बरगद हिलाया, पत्ते थरथराए, ओर पता नही पथ्थर गिरा हो या और कुछ लेकिन उस खाई से कुछ आवाज आई.. मेरा वाला पत्ता चिल्लाया, "भाई तेंदुआ.."

मैं भी चोंका, "किधर"

"आवाज आई ना.."

"अबे क्या आदमी है तू.. चौकन्ना रह, डरा हुआ नही।" 

"भाई, एडवेंचर पर आया हूँ, किसीका भोजन बनने नही..! पीछे कोई भैंस जैसे जानवर की खोपड़ी भी पड़ी थी, क्या पता किस ओर से तेंदुआ आकर हैप्पी रक्षाबंधन कह दे?"

"तू तो डराता भी है बे, ठीक से देख, यहाँ कुछ दिन पहले ही इन वृक्षो को रोपा गया है, आजूबाजू के गांव वाले या फारेस्ट वाले आते रहते होंगे यहां, कोई तेंदुवा-गेंदवा नही है यहाँ।"

"फिर वो आवाज.."

"हवा कितनी तेज है यहाँ, हुआ होगा नीचे कुछ, चल देख के आते।" मैंने थोड़े मजे लेने के लिए कहा।

"नीचे? अबे वापस चल अब, बहुत देख लिए तेरे सस्ते ग्रेंड केनयन्स।"

हालांकि नीचे उतरने का मेरा तो पूरा मन था, क्योंकि मैंने फोटोज देखे थे, नीचे से बरगद की छत, बड़ी बड़ी बरगद की जमीन तक झूलती शाखाए, और उन गुफाओ को नजदीक से देखना था, लेकिन कहीं से ही कोई भी रास्ता, या पगडंडी भी नही मिली मुझे, और वैसे भी यह बीहड़ बहुत अधिक शांत था, दोपहर का एक बज रहा था, पंछियो की भी कोई किलकारी न थी। हमने वापिस जाना उचित और आवश्यक समझा।

रोड से उतारकर हमने बीहड़ में कुछ दूर तक तो मोटरसायकल लाई थी। "देखते रहियो पत्ते, कहीं पीछे से तेंदुआ न आ जाए?" हस्ते-ठिठोली करते मैं और पत्ता मोटरसायकल तक आ पहुंचे। सेल्फ लगाते ही फिर से काली सड़क पर घुर्राती मोटरसायकल भागने लगी। थोड़े ही आगे चलकर तीन रास्ते पड़ते है, एक से तो हम आए, एक हबाय की ओर जाता है, तीसरा उन पहाडियो के पीछे ले जाता है.. जिस पर कभी मैंने स्प्लेंडर चढ़ाकर दूर दूर तक के दृश्यों को आंखों से कैद किया था, अभी यह लिखते समय भी वह दृश्य आंखों के आगे से चलचित्र की तरह गुजरते है..!

उन पहाडियो के पीछे लोडाई, ध्रंग, फुलाय, कोटाय गांव बसे है। ध्रंग-लोडाई का नाम सुनते ही याद आता है वर्ष 2001 का कच्छ का भूकंप..! 26 जनवरी थी उस दिन। क्या क्रूर दिवस था वह, कई हजारो को मृत्यु की शरण मे ले गया था वह दिन। मैं स्कूल जाने को तैयार होकर घर के बाहर गेट पकड़कर रिक्शा का इन्तेजार कर रहा था..! पहले तो लगा कि गेट इलेक्ट्रिक करंट मार रहा है, अचानक से आसमान में चिड़िया और कौवे चिल्लाने लगे, गाय और कुत्ते इधर उधर भागने लगे, कुछ ही सेकंडों में सब कुछ हिलने लगा, सामने का दो मंजिला मकान कभी दाए झुकता कभी बाए, कभी आगे झुकता, कभी पीछे.. खुद के पैरों पर खड़ा रहना भी मुश्किल लग रहा था.. कोई चिल्ला रहा था 'भागो भूकंप आया..' लेकिन हिलती जमीन पर कोई भागे भी तो कैसे? कहीं कहीं जमीनों में दरारें दिखने लगी, हर कोई चीख रहा था, चिल्ला रहा था..। मुझे कुछ भी समझ नही आ रहा था, हम में से कई ओ को भूकंप होता क्या है यही नही पता था। इससे बचा कैसे जाए वह तो दूर की बात थी..! सब बस मकानों से दूर होकर रोड पर आ गए थे। कुछ देर बाद सब शांत हो गया। हमारे एरिया में सभी मकान सुरक्षित थे, कोई जानहानि नही हुई, लेकिन फिर भी मरण-चीखे चारो ओर से सुनाई दे रही थी..! ओर जगह बहुत मकान गिरे थे, चारो तरफ बस मलबा.. और लाशें..! मुझे याद है, हमारा स्कूल भी ढह गया था, 26 जनवरी थी, जो स्कूल पहुंच गए थे वे सारे बच्चे ध्वजारोहण के लिए खुले मैदान में थे.. बस ईश्वरकृपा ही थी। लेकिन हर जगह ईश्वर ने भी कृपा नही दिखाई थी.. निष्ठुर ईश्वर ने बच्चों का भी भोग.. छोड़िए।

उस भूकंप का एपीसेन्टर यह ध्रंग-लोडाई था। आज लगभग उस क्रूर यादों के तेईस सालो बाद मैंने पहली बार वो जगह देखी जिस भूकंप की शुरुआत जहाँ से हुई थी।

छोटी छोटी पहाड़ियो को बीच से चीरकर एक काली सड़क गुजर रही थी। मैं और पत्ता भूकंप की बातों को याद करते उस सड़क से निकले, बोर्ड आया, लोडाई..! गांव के बिचसे ही रोड निकलती है, छोटा सा बस स्टैंड बना है, चाय-नास्ते की कुछ दुकाने है..! काफी देर से कड़ी धूप में ही चल रहे थे। गला सुख रहा था, हमने स्टॉप ले लिया। पानी की एक बोतल ली, गटक गए। एक एक सिगरेट का और धुंआ किया। और फिर से सड़क पर हम, हमारी मोटरसायकल और तेज धूप..!

कुछ ही दूरी पर गांव आया ध्रंग..! आज तो इसे ज्यादातर लोग भूकंप के कारण ही याद करते है लेकिन यह गांव एक और कारण से भी अति प्रख्यात है..! एक संत हुए थे, 'संत श्री मेकरण'।

एक समय था, जब लोग सिंध तक रण से होते हुए पैदल या ऊँटो से यात्रा करते थे। कच्छ और सिंध की संस्कृति मिलती झूलती है, तो व्यवहार और व्यापार भी हुआ करता था। कच्छ के बड़े रण से होते हुए सिंध तक जाया जाता था। उन यात्रिको की सबसे विकट समस्या पानी हुआ करती थी। संत मेकरण पानी पिलाने का ही पुण्यकार्य किया करते थे। कहानी लंबी है कि इनमें बाल्यावस्था से ही परोपकार तथा सन्यासवृत्ति जागृत हो गई थी। किसी दिन वे घर से निकलकर माता के मढ़ पहुंच गए, सन्यास की दीक्षा लेने के लिए, और फिर उन्हें बाल्यावस्था के कारण समझाया गया, लेकिन फिर भी इन्होंने सन्यास लिया। संत मेकरण के साथ दो जीव और थे। एक गधा था 'लालियो' नामका, और एक श्वान था 'मोतियो' नामका। गधे पर पानी भरी मशक लादते, खुद भी दोनो कंधो पर पानी की मशक और कुछ खाने के लिए सामान लेते, श्वान भी साथ चलता, रण में सूंघता हुआ श्वान जरूरतमंदों तक उन्हें पहुंचाता, उस रण में दिशा भूले को वे खाना-पानी और दिशा निर्देश किया करते..! भजन, जप तथा तप कर वे संत की श्रेणी को प्राप्त हुए, और अंत मे उन्होंने समाधि अवस्था प्राप्त की। ध्रंग गांव उनकी ही भूमि है..!

हमने दोपहर का समय देखकर बाहर से ही हाथ जोड़ पुण्यात्मा को प्रार्थना की, और आज GPS टेक्नोलॉजी वाले, और गढ्ढेयुक्त पक्की सड़क वाले जमानेमें हम बस आगे बढ़ते रहे। कुछ ही दूर चलते फिर से एक बार हम कोटाय गांव आ पहुंचे थे। भागती हुई मोटरसायकल त्वरा से हमे कल वाले वही सूर्यमंदिर का दिशानिर्देश करते साइनबोर्ड तक ले आई..! मैंने जेब से मोबाइल निकाला, साइनबोर्ड की फ़ोटो ली, और उस छोटी सी सड़क पर मुड़ गए। हालांकि आज किसी ने वहाँ उस गढ्ढे को भर दिया था जिसके कारण बीते कल को हम वहां से कार लेकर नही जा पाए थे, लेकिन सड़क पूरी लद्दाख टाइप ऑफ़रोडिंग के मजे देने को उत्सुक थी।

गड्ढो को कूदती, कंकरों पर रेंगती अपनी मोटरसायकल कुछ ही मिनिट में एक गेट के सामने ले आई। गेट पर बड़े बड़े अक्षरों में "ASI" लिखा था। उसका अर्थ समझाने की जरूरत नही, कल विस्तृत से लिख चुका हूं। हमने गेट खोलकर अंदर प्रवेश किया। बगैर शिखर की शिल्पकृतियों वाली दीवारे, मैने और पत्ते ने ढेर सारे फोटोज क्लिक किए। पत्ता तो दे धड़ाधड़ स्टोरियां और स्नेप की रेल चलाने में व्यस्त था। मैंने उन शिल्पों का मेरी न्यूनतम बुद्धि से निरीक्षण किया। कल लिखने में थोड़ी सी क्षति रह गई थी। 

आज सुबह जब मैं कल वाली पोस्ट को पब्लिश करने के बाद उस सूर्यमंदिर के बारे में कुछ अन्य माहिती पढ़ रहा था तब मुझे कहीं पढ़ने में आया कि यह एक शिवमंदिर था। और वाकई मंदिर के भीतर गणपति तथा हनुमान के खंडित शिल्प मौजूद है। गर्भगृह में अवश्य ही सूर्य का शिल्प रखा गया है, किन्तु शिव मंदिरों में जो शिव पर चढ़ाए जाते जल की एक धारा मंदिर के बाहर निकलती है, बिल्कुल यहां भी मंदिर के बाहर पानी के बाहर निकलने के लिए जगह थी। कच्छ में नखत्राणा के पास ऐसा ही प्राचीन दसवीं सदी का 'पुअरेश्वर' नाम से भग्न मंदिर खड़ा है। भुज से मांडवी रोड पर केरा गांव में भी उसी समयखंड का एक प्राचीन शिव मंदिर भग्नावस्था में स्थित है। यह कोटाय में भी उसी समयखण्ड का मंदिर है, तो शिव मंदिर क्यो नही हो सकता। मैंने पूरी जानकारी तो अभी तक नही ली है, पर पढूंगा जरूर इस विषय पर।

खेर, हमारा फ़ोटो-शेसन चल रहा था, तभी गेट पर टावेरा रुकी। चार निवृत - दो पुरुष दो स्त्रियां उतरे, सर पर टूरिस्ट वाली गोल टोपियां, गले मे बड़े दूरबीन, और कंधे पर टंगा DSLR कैमरा..!

मैंने और पत्ते ने इन आगंतुकों पर ज्यादा ध्यान न देते अपनी फोटोग्राफी कला को उत्तेजन देना जारी रखा। हालांकि हम दोनों ही बड़े बेकार फोटोग्राफर ही बन पाए थे। 

"आपलोग यही के है क्या?" उन आधेडो में से एक पुरुष ने पूछा।

"नही, हम भी घूमने और दर्शन करने आए है। आप कहाँ से आए है?" मैने पूछ लिया।

"मैं तो यही का हूँ, ये टूरिस्ट है अहमदाबाद से आए है।" कहकर वे लोग मंदिर के गर्भगृह की और जाने लगे।

तो मैने कहा, "अंदर थोड़ा ध्यान रखना, चारोओर चमकादड़ टँग रहे है।"

"अच्छा, यह लोग बर्ड वाचिंग करते है.." उन्होंने कहा।

मैं और पत्ता एक दूसरे की और देखते हुए आंखों ही आंखों में कह पड़े, "चमकादड में क्या देखना.." और मन ही मन हँस पड़े।

तभी दूर एक पहाड़ी पर उड़ती चील को यह लोग अपने दूरबीन से देखने मे व्यस्त हो गए और हम अपने-अपने मोबाईलो में।

पत्ता हरे नीम के नीचे बैठा था, मैं थोड़ा आसपास इधरउधर टहलता कुछ और भी ढूंढने का प्रयास करता घूमने लगा। फिर अचानक दिमाग की बत्ती जली, जब ASI वाल ने ही पूरी छान-बीन करने के बाद यहाँ मंदिर के चारो और बाउंड्री बनाई है, तो इस बाउंड्री के अंदर अपने को क्या ख़ाक मिलेगा? मुझे कुछ तो अवशेष ढूंढने थे, की कभी यहाँ पर नौ मंदिर हुआ करते थे, एक अणगौरगढ़ नामका किला हुआ करता था तो कुछ तो मिलना चाहिए था न? पर वहां मुझे तो बस इस संरक्षित मंदिरावशेष के अलावा कुछ भी न मिला..! पीछे जंगल है कांटेदार बबूलों का। न कोई पगडण्डी, न कोई मानवीय प्रजा यहाँ उपलब्ध थी जो कुछ समजा सके..! जैसी महादेव या फिर अब सूर्यनारायण की इच्छा सोचकर हमने अब घर की दिशा पकड़ने की ठानी।

जीवन की तरह ही यहाँ भी घर जाने के लिए दो रास्ते थे। एक तो वही गाँवों में से होते हुए जिस रास्ते से आए थे उसी रस्ते से वापिस चले जाए, एक कल वाला भुज होकर..! हमने भुज वाला चुना..! 80-90 की गति से भागती मोटरसायकल, हवा की तेज लहरे, लहलहाते खेत, भागते बादल, दूर अभी भी शिकार को घेरने के लिए आसमान में गोल गोल वर्तुलाकार घूमती चील, कभी धुप - कभी छाँव... यही तो प्रकृति की सुंदरता है..! या फिर दृष्टिकोण।

कुछ ही देर में हम भुज पहुँच गए। चार-साढेचार बज रहे थे। भूख भी लगी थी, एक आइसक्रीम वाला दिखा, सोचा बादामशेक पिया जाए। मैंने दो बादामशेक का ऑर्डर दिया, एक बात तो तय है, खाने-पिने के मामले में भुज मुझे धोखा ही देता है। मारवाड़ी ने बादामशेक में भरपूर पानी मिलाया था। हमारे यहाँ ज्यादातर राजस्थानी लोग ही यह फालूदा-आइसक्रीम के ठेले संभालते है। और गुजरात में फिक्स है, राजस्थानी मतलब मारवाड़ी... फिर वो बाड़मेर का हो या शेखावाटी - जयपुर का..! हरयाणा पंजाब के सरदार, उ.प्र. और बिहार वाले भैया, दक्षिण वाले मद्रासी या अब अन्ना। अब तो मोबाइल वाले ज़माने में दूरिया रही नहीं तो समझ सकते है की भिन्नताएं है।

भुज में कुछ नास्तापानी किया, और फिर चल दिए, नॉनस्टॉप घर की ओर... साम के साढ़े छह बजे कलका अधूरा सफर पूरा हुआ।

|| अस्तु ||


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