विशालकाय कारखानों ने दिनभर किये परिश्रम के फलस्वरूप अपना सारा इकठ्ठा किया प्रस्वेद एक नदी में मिला दिया, वह प्रस्वेद में कल्पित प्रदूषण नदी के पानी के साथ जहा मैं बैठा कुछ लिखने को सोच ही रहा होता हूँ वही से कलकल करता बहता निकला। संतोष इतना ही था कि बस दुर्गंध नही थी इस मे। वह सारा प्रवाह बहता हुआ कांडला की खाड़ी में समाहित हो जाता है।
शाम के सात बजे थे, मंदिर का नगाड़ा बज उठा, झालर रणकी, घंटारव गुंजित हो उठे। प्रकृति में एक मधुर ध्वनि के साथ ही अगरबत्तियों ने सुगंध भी घोल दी। कुछ ही क्षणों पश्चात एक नीरव शांति थी, बस अखंड प्रवाहित उस नदी की कलकल के अलावा। मैं कुछ शब्दों को माला में पिरो रहा था, बारबार असफलताओ का सारा दोष मैंने उस नदी की किलकिलाहट पर डाल बस उसे घूरता बैठा था।
"और कल क्या कर रहा है?" पत्ता (प्रीतम परदेशी) अपने अधजूठे सेब वाले फोन को हाथो में लहराता हुआ आया।
"जो हर संडे को करता हु, ऑफिस जिंदाबाद.."
"क्या जब देखो ऑफिस-ऑफिस खेलता है, जिंदगी में कुछ एडवेंचर है ही नही तेरे.."
"अबे साले.."
"सच ही तो कह रहा हु, तेरा शेठ तुझे डेली ऑफिस में ही देखकर बॉर नही होता?"
"छोड़ना भाई, तू बता।"
"कल चलना यार कहीं घूमकर आते है.."
"ना, लाला ! बहुत काम है ऑफिस में।" सच मे काम तो था, लेकिन जाने का मन भी था।
"माता के मढ चले?"
"साढ़े तीन घण्टे सिर्फ जाने में लगेंगे, मुझे दस बजे तक ऑफिस भी पहुंचना है.."
"हाँ ! जैसे तू ऑफिस नही जाएगा तो तेरे शेठ की फैक्ट्री बंध हो जाएगी.."
"हो भी सकती है.. कहीं नजदीक जाके आवे तो ?" मैने कुछ ऑप्शन खोजने की कोशिश की।
इंशोर्ट.. मैने एक ऑप्शन दिया, पत्ते को भी सुझाव अच्छा लगा, सत्तर किलोमीटर पर ही था, तो जल्दी से वापिस आना भी संभव था और धार्मिक स्थल भी था, पत्ते को दर्शन करने थे, मुझे डेली रूटीन से बाहर निकलना था.. दोनो सेट। जल्दी उठने के चक्कर में दोनों ने नदी का साथ छोड़ा..!
***
वर्षा ऋतु के गर्मी और उमस भरे दिन को परास्त करने शशि अपनी शीतलता छिटक रहा हो, और सूर्य की तीव्र किरणों से त्रस्त वायु भी रात्रि में मन्द विहार पर निकला हो ऐसा मधुर वातावरण था। सुबह जल्दी उठना था, तो सोचा जल्दी सोना पड़ेगा..! और निंद्रा इतनी स्वार्थी है कि उसे आवश्यकता हो तभी आती है..! बांग्लादेश की जीडीपी भर करवट लेने के बाद भी नींद न आई तो याद आया, एलार्म लगाना अति आवश्यक है..! क्या पता एलार्म के बिना सूर्य ही न निकलता हो?
मोबाइलमे सवेरे साढ़े-पांच का एलार्म सेट किया, अब नींद आ नही रही थी तो सोचा एक गुजराती भाषा के स्टूडेंट को परेशान किया जाए, मेसेज किया, "પડ્યો કાંઈ ગુજરાતી માં ટપ્પો?" शायद स्वार्थी निंद्रा उन तक पहुंच गई थी, तो कोई रिप्लाय आया नही। अब ? हारे का सहारा बाबा यूट्यूब हमारा.. लेकिन देखा भी क्या जाए ? फिड में निंद्रा को और दूर ले जाने को तैयार 'राजवीरसिंह चलकोइ' का वीडियो तैयार ही था। भाई थोड़े जोश में थे, बोल पड़े गुजराती लोग पढ़ाई में भी राजस्थानीओ (पात्रो) को पढाते है..!
राजवीरसिंह का मैं बड़ा प्रशंसक हूँ, पर भाई कभी कभी भावना में बह जाते है..!
खैर, यह तो निंद्रा उड़ाने वाले कार्यक्रम में मैं लग चुका था, फिर सोचा ऐसे तो पार नही पड़ेगी। कोई फ्लॉप फ़िल्म देख लूं तो शायद निंद्रा आ जाए। इन्ही उहापोह में लगभग बारह बज चुके थे.. कानो में लगे ब्लूटूथ के साथ ही कब निंद्रादेवी ने अपने शरण ले लिया पता ही न चला। अचानक आंख खुली, फोन चीख रहा था.. लगा जैसे अभी दो मिनिट पहले ही तो सोया था.. घण्टी अभी भी बजे जा रही थी.. फोन उठाया।
"उठो सरकार.. साढ़े पांच हो रहे है..!"
"पत्ते, सो जा, मजे मत ले.."
"ओ हेलो, टाइम देख.."
सच मे घड़ी में साढ़े पांच हो चुके थे। पत्ता फिर बोला, "जाना इन्हें है और जगाने की जिम्मेवारी भी हमारी.."
"ठीक है, आधे घण्टे में रेडी हो जाऊंगा, आ जा तू.."
छत पर गया, सूर्यदेव का एलार्म बजने में शायद समय शेष था। या फिर वे भी मेरी तरह तैयार होने गए हो।
ठीक पांच पचास पर पत्ते को फोन किया, "आ जा बे.."
"बस गाड़ी को पानी मार रहा हु, पांच मिनिट में आया।"
दस मिनिट बाद फिर मैंने फोन किया, "ज्यादा पानी मारेगा तो बलेनो स्कॉर्पियो नही हो जाएगी.."
प्रत्युत्तर में पत्ते के ठहाके ही सुनाई दिए।
पाँचेक मिनिट बाद पत्ते की गाड़ी का हॉर्न सुनाई दिया। हम निकल पड़े। ज्यादा दूर नही था.. बिल्कुल जाना-पहचाना रुट। भुज वाया अंजार, और आगे उन्नीस किलोमीटर उत्तर में।
लगभग डेढ़ घंटे में तो पहुंच ही गए थे।
***
नीरवता की व्याख्या प्रकृति स्वंय वहां समझा रही थी। प्राचीन स्थापत्य में कुछ अंशतः अर्वाचीन बदलाव, रंगरोगन सुंदरता में अभवृद्धि ही कर रहा था। संतो की समाधि, तथा केंद्र में स्थित गढ़ के विशालकाय प्राचीन काष्ट दरवाजो से होते हुए हम छोटे लेकिन मुख्य मंदिर तक पहुंचे। सिंदूर में रंगी कच्छ देश की मुख्यतम चार देवी - माँ आशापुरा, माँ रवेची, माँ मोमाय और जिनका यह मुख्य स्थानक माना जाता है वह माँ रुद्राणी, चारो देवियां, चारो बहनों की तरह एकसाथ विराजित है। पूर्ण श्रद्धासः दर्शन किए।
आठ बजे चुके थे। घनो से अधघिरे आसमान में सूर्यनारायण अपने ताप में वृद्धि किए जा रहे थे। श्वेत और श्याम वर्णी आकाश धीरे धीरे प्रेम के पर्याय पीड़ा का भी आभास करा रहा था। अन्य धर्मस्थानों की तरह यहाँ अगरबत्ती लेलो, प्रसाद, श्रीफल लेलो, की कोई आवाज न थी। तपस्वी तथा शांति के सेवको को प्रथम दृष्टया प्रेम हो जाए ऐसा स्थान है यह। अधेड़ वृक्षो पर पीढियो से वास करते पक्षियो की किलकार वातावरण को सुमधुर बना रही थी, इन्ही वृक्षो के संरक्षण में पल रही कुछ बेलिया, इन्ही वृक्षो के किशोरावस्था को प्राप्त किये पुत्र समान पुष्प के नन्हे पौधे मनोहर सुगंध का प्रस्राव किए जा रहे थे। पास ही जीवन आधार का स्त्रोत समान जल - डेम स्वरूप में एक जलखण्ड का आकार लिया स्थिर तपस्वी की भांति समाधिस्थ था। मैं भी शायद समाधि की ओर अग्रसर था, चेतन्वन्त समाधि, प्रकृति को पी सके वह समाधि, चक्षुओं के पटल पर अंकित हो सके वह समाधि, श्रवणेंद्रियों ने सुने पवनो की लहरों से टकराते पत्तो के नाद से उत्पन्न होती समाधि, जहाँ तहाँ, यदा-कदा, अत्र तत्र सर्वत्र शीघ्रताशीघ्र भ्रमण करता मन स्थिर हो रहा था, समाधि.. समाधियो के मध्य चेतनवन्त समाधि.. या केंद्रित ध्यान..! वर्णन संभव है, पर वर्णन वास्विकता को पूर्णतः व्यक्त कभी नही कर सकता। वर्णन से अनुमानित स्थिति अनुभव से भिन्न ही रहती है।
"हाँ भाई, अब..?" मेरी भंग होने को तत्पर ध्यानावस्था पर शब्दप्रहार करता पत्ता बोला।
"देख ! आकाश में क्या है?"
"ला तेरे चश्मे पोछ दूं, सूरज दिख रहा है मुझे?"
"चल उसी के पास.."
"मतलब?"
"सेल मार, समझाता हूं।" बलेनो में मेरे पाव-भीमकाय देह को सुव्यवस्थित स्थिर करते मैंने कहा।
रुद्राणी जागीर से लगभग बारह किलोमीटर पर कोटाय नामक गाँव है। किसी समय मे सिंध से आए जाडेजा ओ ने अपनी स्थिरता दर्शाने के लिए वहां पहाड़ियों के मध्य एक 'अणगोरगढ़' नामक गढ़ बंधवाया था। आज वहां शिल्पकला के मृत अवशेष समान एक चबूतरे पर एक ऊंची कदकाठी का एक स्थापत्य खड़ा है। उन्नत शिखर है नही, पर शेष खड़ी दीवारे अद्भुत शिल्पकला को आज एक-सहस्त्र वर्षो के पश्चात भी लिए बैठी है। पहाड़ आज भी वही है पर गढ़ शायद नामशेष है। पृथ्वी पर कुछ बुद्धिजीवियो ने खींची रेखा जिन्हें हम कर्कवृत के नाम से जानते है, वह यहीं से गुजरती है। उसी कर्कवृत पर इस भारत-भूमि पर बसी सूर्य-उपासक जातियो ने पश्चिम सुदूर प्रान्त कच्छ के कोटाय से लेकर कोणार्क तक सूर्यमंदिरो का निर्माण करवाया होगा।
***
रुद्राणी जागीर से निकलते ही कुनरिया होते हुए मैं और पत्ता बैठे थे, बलेनो दौड़ रही थी। कोटाय से कुछ मीटर पहले ही दायीं ओर जाती सड़क पर सूर्यमंदिर बोर्ड दिखा। पत्ते ने दायीं ओर गाड़ी मोड़ दी, बिल्कुल एक ही फोरव्हीलर चल सके उतनी चौड़ी पक्की सड़क, लगभग तिनसों मीटर तक। फिर उसके आगे.. रास्ता गायब.. आगे झाड़ियों का एकछत्र वर्चस्व..! मैं और पत्ता एक दूसरे का मुंह ताकते पिछले साइनबोर्ड को याद कर रहे थे। झाड़ियों के बीच से सड़क जैसा कुछ दिख तो रहा था, पर उस पर चलना हो तो फिर ट्रेक्टर ले आओ, या फिर जेसीबी या हिटाची, टैंक भी ला सकते है अगर मिले तो..!
हमने गाड़ी यूटर्न ली, वापस साइनबोर्ड तक आए। साइनबोर्ड का इशारा इसी तरफ था। "रुक यार गूगल मेप चेक करता हूँ.." मैंने झुंझलाते हुए कहा।
"भाई, गूगल मैप को तो कई बार धोखा देते देखा है, लेकिन सरकार भी..?"
"सरकार कहाँ बीच मे आई?" मैने मेप देखना जारी रखते पूछा।
"साइनबोर्ड तो सरकारी होते है ना ?"
मेप के अनुसार भी यही रास्ता सही और एकमात्र था। सर खुजलाते मैंने कहा, "छौड़ इन निर्जीव वस्तुए भूल करवाती ही है.. किसी जीवित जागते को पूछते है..!"
हमने आगे गांव की ओर गाड़ी बढाई। कुछ भारत के भविष्य नवयुवक बुद्धिहर मोबाइल चलाते बैठे दिखे। पत्ते ने उनके पास गाड़ी रोकी, मैंने शीशा नीचे कर पूछा, "भाई, यहां वो सूर्यमंदिर है वहां जानेका रास्ता कौनसा है?"
उसने मोबाइल से माथा ऊंचा किए बिना ही कहा, "पीछे ही था, बोर्ड भी लगा है।"
"वो रस्ता बंध है.." मैंने हमारी समस्या जताई।
अब उसने मोबाइल से बाहर आकर वास्तविकता से रूबरू होते कहा, "हो सकता है बारिश के कारण। ज्यादा नही आधा-किलोमीटर होगा, पैदल चले जाओ।" और वापस अपने फोन चलाने लगा।
मैंने और पत्ते ने फिर से एक-दूसरे की ओर देखा, हमारे शहरी शरीर को देखे बिना ही उस नवयुवक ने अपने गांव का गठीला आदमी समझ लिया होगा। हम दोनों सरकार को कोसते हुए वापस मुड़ गए।
"सूरज प्रत्यक्ष देव है, नर वंदे पखाण,
ईसर कहे उमैया सुणो, एता लोक अजाण"
मुझे यह दोहा अक्षरसः सत्य होता प्रतीत हुआ। "भगवान शिव उमा को कहते है कि मनुष्य मूर्ख है, जो सूर्य समान प्रत्यक्ष देव को छोड़कर पत्थरो को पूजते है।"
कड़वा है किंतु सत्य है। कोटाय का सूर्यमंदिर भारतीय पुरातत्व विभाग के अधिकृत है। वैश्विक धरोहर में भी सम्मिलित है। भारतीय भूमि पर सूर्योपासना का साक्षी है। गुजरात के इतिहास के स्वर्णिम सोलंकीयुग की शिल्पकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। सौराष्ट्र को जिस काठियावाड़ नाम से भी जाना जाता है उन काठी समुदाय के समृद्ध इतिहास का भग्नावशेष है। केंद्र सरकार तो भारतीय भूभाग के इस पश्चिम छौर से बहुत दूर है, लेकिन गुजरात सरकार इतनी दूरी कैसे रख सकती है? गुजरात टूरिज़म का तो उद्देश-वाक्य है, "कुछ दिन तो गुजारो गुजरात में"। कैसे आएगा कोई, रास्ता तो बनाओ..! या दोषारोपण करोगे की केंद्र के हस्तक क्षेत्र है वह..! ऊपर से कच्छ के लिए टूरिज़म का टैगलाइन है कि, "कच्छ नही देखा तो कुछ नही देखा" अब मैं बोलूंगा तो तुम बोलोगे की वो बोलता है..!
यही सब मनोमंथन की झुंझलाहट के साथ हम पहुंचे भुज..! सवेरे से एक तो कुछ खाया नही था। ऊपर से प्रत्यक्ष सूरज देव के रश्मि-बाण अब आहत भी कर रहे थे। कार की ऐसी फुल कर दी थी, फिर भी पीठ तो भीग ही जाती। लगभग दस बजे हम भुज शहर में कुछ खाने को खोज रहे थे। यूं तो गुजरात नास्ते के लिए प्रख्यात है, लेकिन मन थोड़ा उग्र था, उपरसे हम भी गुजराती प्रजा, इन नास्तो मे नयापन तो चाहिए न? वही, दाबेली, दाल-पकवान, फाफड़ा-जलेबी, खमण-ढोकला ही चारोओर थे। हम लोगो की सबसे बड़ी खूबी है कि गुजरात मे हम पंजाबी-साउथ इंडियन और चाइनीज़ नास्ता ढूंढते है, लेकिन गुजरात के बाहर निकलते ही "गुजराती / काठियावाड़ी थाली मिल जाए तो मजा आ जाए.." इन लारी ओ को बायपास करते डोमिनोज़ की ओर बढ़ गए। सवेरे सवेरे इसके पिज्जे भी अभी तक जगे नही थे। बंध डोमिनोज़ के शटर को नमस्कार कर आखिरकार आकाशवाणी केंद्र के सामने एक स्वच्छ और सुव्यवस्थित दुकान में हम घुसे..! सुबह सुबह मरे मन से समोसे और खमण खाए, वे भी बेस्वाद निकले.. उस दुकानवाले को भी कोसते हुए हम फिर से निकल पड़े..!
अब और कोई रोमांच के लिए स्थान और समय भी शेष न था, हमने घर की दिशा ही पकड़ी। लगभग ग्यारह बजे मैं अपनी ऑफिस पहुंच चुका था, और अपने वही घिसे-पीटे दिन में व्यस्त हो चुका था।