स्थिरता में व्यक्ति क्या ही सोचे ?

2

स्थिरता में व्यक्ति क्या ही सोचे ?


क्यों ? क्योंकि हमे चंचल मन की ही आदत है..! स्थिर मन को हमने कुछ ही क्षणों के लिए अनुभव किया होगा शायद। बाकी दिन तो मन इधर से उधर भटकता रहता है। कभी यह विचार ले आता है, कभी वह विचार। पसंदगी-नापसंदगी के कलश का हक भी मन के पास है.. अब वह भटकता रहता है तो कुछ न कुछ मेरे जैसे उटपटांग, या मुझसे कई बेहतर भी लिख लेते है..! तो क्या स्थिर मन से कुछ भी संभव नहीं ? क्या मन की चंचलता ही कुछ करने को परिबल देती है ? (मेरा काम है सवालों की छड़ी लगाना, उत्तर वाचक खुद खोजे।)



कल-परसो एक ध्यान वाली रील देखि थी, तो अभी कुछ दिनों से सवेरे मॉर्निंग वॉक के बाद उसी खुले मैदान में सूर्य के सम्मुख आँखे बंध करके बैठता हूँ.. दिखने में तो ध्यान करने जैसा दुसरो को लगता होगा पर हकीकत में तो मेरा मन आँखे बंध होने के कारण श्रवणेन्द्रियों पर अपना पूरा जोर आजमाता है..! पहले दिन तो कानो पर ब्लूटूथ, और गाने बजने के कारण तथा आँखे बंध थी इसलिए मन को कुछ नहीं सुझा तो निंद्रा को पकड़ लाया। बैठे बैठे ही झपकियाँ आने लगी थी। आज सवेरे आँखे बंध और कान खुले रखे थे.. बस मन को बहार जाने का मार्ग मिल गया। गया दूर से आ रहे मंदिर के घण्टारव तक, वहां से निकला तो मंदिर के पीछे ही खुली जमीन पर कहीं चहकते मोर के नीले गले तक.. तभी पीछे से जा रही स्कुल बस के ड्राइवर ने हॉर्न बजाया और मन पहुंचा रोड पर.. जहाँ मैं बैठा था वही से कोई दौड़ लगाते हुए गया तो उसकी हांफती साँसे भी कान ने सुनी और मन को आवाज दी..! कोई स्कुल जाता बच्चा चिल्ला रहा था... धीरे धीरे यह सब आवाजो से मन परिचित हुआ, तो उनके पीछे भागना छोड़ने लगा... अब वह भीतर ही कुछ न कुछ खोज रहा था.. अँधेरे में उजियारा ?


अंदर के खोखलेपन से तो वह पूर्णतः परिचित था.. तो उसने मेरी आँखे खुलवाने के लिए जोर आजमाया..! कभी पुरानी यादो को आँखों के आगे ले आता, कभी कोई भयभीत करनेवाली घटना को..! कभी कोई प्रसंग फिल्म की तरह चलता.. प्रभाकर की किरणे भी अब पीड़ादायक हो चली थी.. सवा सात बजने तक में ही रश्मिया कांटो सी चुभ रही थी। फिर भी आँखे नहीं खोली..! धीरे धीरे मैं अनुभव कर रहा था की अब मन का उत्पात मचाना शांत होने लगा.. बाहर की आवाजे भी कम हो चली थी.. विचारो की रेल मेरा स्टेशन स्किप कर रही थी। सवासात को दौड़ता शहर मेरे लिए तो मानो थम गया था.. मैं शायद कुछ भी न सुन रहा था.. न ही मुझे अब सूर्य की किरणे चुभ रही थी.. लगा जैसे सब कुछ ही स्थिर हो गया है.. कहीं कोई चेतना नहीं, सब जड़..! (यह मनघडंत नहीं है।)


पता नहीं अचानक ही आँखे खुल गई.. सूर्य की तीव्र किरणों ने आँखों पर पहने चश्मा का भी लिहाज रखे बिना चकाचौंध कर दी। प्रियंवदा, मन की स्थिरता सचमे अच्छी नहीं। शायद सब कुछ ही रुक जाता है इसकी स्थिरता के पीछे.. या फिर एकमात्र मैं ही अकेला पीछे छूट जाता होऊंगा...! लेकिन स्थिर मन किसी और स्थिति का द्वार अवश्य ही खोल देता है, और उसे अनुभव करना कैसा होगा.. पता नहीं कल्पना भी नहीं है मुझे।


प्रियंवदा ! यह जो चंचल मन है न वह बड़ा ही भ्रामक है..! किसी को किसी न किसी से जोड़ना चाहते ही रहता है, क्योंकि यह कभी भी तृप्त नहीं हो पाता। इसने तृप्ति का अनुभव लिया तो वह भी इसके लिए तो क्षणिक ही रहा है। यह मन ही है जो असंभव को चाहता है। जो नहीं हो सकते उन रिश्तो की कामना करता है। असंभव को संभव करने के लिए प्रेरणाबल शायद यही है। दुनिया ने खामखा ही भेद बना रखा है की मन तो करता है पर दिल नहीं मानता। दिल तो बेचारा पम्पिंग से ही फ्री नहीं हो रखा वो क्या खाख अपनी राय रखेगा.. सब कुछ ही मन नक्की करता है। विचारो में चल रही भ्रमणाए मन ही निर्माण करता है, स्वयं ही वाद भी करता है और स्वयं ही प्रतिवाद भी, आश्चर्य तो वहां है की न्यायोचित निर्णय या लाभकारी निश्चय भी स्वयं ही सुनाता है।


ठीक है फिर अब मन ही कह रहा है.. ज्यादा लंबी लंबी नहीं फेंकनी..!!!

दिनांक २६/०९/२०२४, १६:२१

Post a Comment

2Comments
  1. Btaiye pdhte pdhte mne v sb kuchh imagin kr liya 😄... Sab kuchh man hu krata h 👏👏.

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत शुक्रिया पढ़ने के लिए...!🙏

      Delete
Post a Comment