अनुभव को शब्दों में कभी भी पूर्णतः नहीं उतारा जा सकता.. || Experience can never be fully expressed in words..||

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कभी कभी ईर्ष्या सी होती है..! कोई कुछ कर पा रहा है तो मैं क्यों नहीं ? किसी के सहयोग से ही कुछ न कुछ लिख रहा हूं ! ऐसा भी होता है की अकेलापन ज्यादा अच्छा है, पर उस अकेलेपन में किसी के कंधे पर अपनी बांह भी होनी चाहिए... यह अनुभूतियाँ क्षणिक ही होती होगी..! धीरे धीरे मेरा लेखन बहुत बदल रहा है, जहाँ मैं कभी एक मात्र गुजराती में लिखता था, कभी-कभार ही हिंदी लिखता वहां आज हररोज हिंदी में ही लिखने लगा हूं..! प्रियंवदा से कल्पित संवाद करने लगा हूं... उटपटांग ही सही पर हररोज लिखने लगा हूँ..! बात तो अच्छी है.. लेकिन मैंने बात की शुरुआत ईर्ष्या से की थी.. ईर्ष्या का कारण कोई बड़ा नहीं है, बस इतना ही की मेरी डायरी कितनी अधूरी है किसी की तुलना में.. क्योंकि मैंने किसी की डायरी के कुछ अंश पढ़े है.. मैं उन अंशो से किसी को समझना चाहता हूँ.. हमे दुसरो की जीवनी में झांकना बहुत पसंद होता है, तभी तो शायद यूट्यूब पर 'लाइफ व्लॉगस' में लाखो की संख्या में व्यूज आते है। कौन अपने जीवन में क्या कर रहा है, वह अपने खाली टाइम में हम देखना चूकते नहीं.. तभी तो समाचार-पत्रों में बॉलीवुड का पूरा एक पन्ना आता है। अब तो नई श्रेणी आ चुकी है, जिसे नाम दिया गया है 'इन्फ्लुएंसर'... किस बात का इन्फ़्लुएंस भाई ? स्वयं में इतनी परिपक्वता नहीं है की कोई 'सुन्दर' सी लड़की ठेला लगाए तो वह इन्फ्लुएंसर बन जाए ?



अनुभव को शब्दों में कभी भी पूर्णतः नहीं उतारा जा सकता.. बस रूपक दे सकते है..! कई बात तो ऐसी भी होती है जो लिखी ही नहीं जा सकती.. सामान्य बोलचाल में हम कितना कुछ बोलते है, शब्द, अपशब्द.. जरुरी नहीं होता की आयने की तरह दिखा वही लिख दिया, आयना भी चित्र का फ्लिप्ड वर्ज़न दिखाता है.. पूर्ण सत्य तो वह भी नहीं बताता। कल सवेरे मैदान में ६-७ चक्कर चलने के बाद थोड़ी देर वहीँ बैठ गया, सांसे अब फूलती है.. शायद सिगरेट्स..! जो भी हो, सूर्य के सम्मुख बैठकर कानो में ब्लूटूथ लगा हुआ था, फ़ोन में बजती प्ले-लिस्ट के बिच एक बढ़िया गाना उसी समय बज उठा.. वीर फिल्म का, रेखा भारद्वाज के स्वर में, शीर्षक है, "कान्हा - ठुमरी"। उगते प्रभाकर के सामने सुखासन में बैठकर आँखे बंध, कानो में गुंजित मीठी ठुमरी.. अब जो अनुभूति हो रही थी, मेरे लिए सम्भव नहीं मैं शब्दों में इसे उतार दूँ। ऐसे ही बहुत से प्रसंग होते है... जो लिख तो नहीं पाते पर कह भी नहीं पाते..! मान लो कोई अंतर्मुखी (INTROVERT) है, वह किसी अन्य अंतर्मुखी से बात करता है तो दोनों झिझक से भरे रहेंगे.. यदि कहीं मिले भी तो आँखे मिलाने में ही असहज हो जाएंगे... दोनों ही अपने मन में एक दूसरे की अगली प्रतिक्रिया सोचने में व्यस्त रहते हुए वर्तमान क्षण का व्यय करेंगे.. धीरे धीरे हिम्मत पस्त हो जाएगी। बात करने की शुरुआत भी होगी तो एक दूसरे को बस हिंट ही देंगे। हकीकत में तो वहां एक झिझक की झीनी परत ही है, अगर वह हट गई तब तो दोनों के ही मन पुरे पुरे खुल और खिल उठेंगे। फिर भी दोनों ही अपनी झिझक से नहीं जित सकते। क्योंकि दोनों ही एकदूसरे के मन में अपनी छाप छोड़ने में व्यस्त है। की उसकी नजरो में कहीं मैं गलत न दिखूं।


आजकल प्रतिदिन इस लिए भी लिख रहा हूँ की कोई प्रेरित कर रहा है.. और प्रेरणा ही सर्वोपरि है किसी विषय को अनुभव करने के लिए। लेकिन कभी कभी विचित्र संयोग बनते है.. किसी दिन कुछ लिखा था, किसी और ने अपने जीवन में घटे प्रसंग से मैच कर लिया। मैंने वाहवाही बटोरी और दूर जा खड़ा हो गया.. और क्या करता ? कई बार ऐसा होता है, कई घटनाएँ समान होती है। अब उन हर घटनाओ के पीछे अर्थ घटन निकालने बैठेंगे तो आगे कब बढ़ेंगे.. मेरे कुछ २-३ मित्र ही है जो मेरा लिखा हुआ अचूक पढ़ रहे है.. प्रतिभाव भी देते है, और सलाह-सूचन भी..! बस ऐसी ही मैत्री बनी रहे तो और क्या चाहिए?


अच्छा यह जो मैत्री का सम्बन्ध होता है न वह लाजवाब होता है.. परसो प्रीतम को मैंने पंद्रह फोन किए, वह फ़ोन पर फोन काट रहा था, कल मैंने उसके सारे कॉल्स काटे.. आज बात हुई तो सीधे ही बोला, चल बैठक लगाते है..! क्या करूँ मैं इसका... मार भी तो नहीं सकता, प्यार जो करता हूँ..!!! मैत्री का प्रेम मुझे लगता है वो लवले-लवली से बेहतर है.. यहाँ एक हाथ ले, एक हाथ दे के बाद भी कई बार बिना किसी स्वार्थ के एक दूसरे की सहायता को, संरक्षण को असमय भी तत्पर रहते है। वैसे मैत्री का संबंध इस लिए भी सविशेष है क्योंकि उसे हम स्वयं निर्धारित करते है, कौन हमारा दोस्त होगा, कौन हमारा परम् मित्र होगा.. यह सब हम स्वयं से निश्चय लेते है। 


भाषा कहो या बोलियां.. यह तब तक सही है जब तक एकदूसरे पर थोपी न जाए..! जैसे कई बार हम एक दूसरे की भाषा की मजाक उड़ा लेते है.. मुझे भाषाए पसंद है, और मैं उन भाषाओ के शब्द तथा लहजा जरूर सीखता हूँ.. हालाँकि हाथ तो पूरा किसी पर भी न बैठा पर कुछ शब्द है जो मुझे याद रह जाते है। राजस्थान के बाड़मेर तरफ का एक शब्द है 'भळै.., मतलब 'साथ में' या 'और' यह कुछ दिमाग में बैठ जाते है, ऐसा ही हरियाणे का 'बेरो पाट्यो' मतलब 'पता चला' और राजस्थानी में होगा 'ठा पड़े', चाबी को कहेंगे 'ताळी'.. व्रज में गुजराती का मिश्रण  मैंने 'प्रवीण सागर' में पढ़ा है..! मुझे अवधि-भोजपुरी एक जैसी लगती है। आज ही एक विडिओ देखा, अवधि की विशेषताओं का.. जैसे हनुमानचालीसा अवधि में है, और बहुत सा साहित्य भी... भारतीय भाषाए या बोलियां इतनी तो शायद सबको आती ही होगी.. बंगाली लोग बोलते है तो "ओ" का ही स्वर मुझे तो सुनाई पड़ता है..! असमीज़ भी इससे बहुत मिलती-झूलती लगती है मुझे। फ़िलहाल तो अवधि को यूट्यूब सर्च किया, कुछ सिखने के लिए मिला लेकिन अंत में जोड़ा जाता 'या' और 'आ' तथा 'वा' स्पष्टता से समझ ही नहीं आया..!


"आज ऐतना लिख दिहेन, बहुत हय.."

(दिनांक २४/०९/२०२४, १७:३२)

|| अस्तु ||


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