रंग या वर्ण... गरबा या डांस ?
भारतीय उपमहाद्वीप पर वर्षो से बाहरी प्रजा आती रही है। जिस स्थान से, जिस आबोहवा में आप बड़े हुए, तथा वंशानुगत आपका वर्ण या रंग होगा। जैसे आर्य श्वेत थे, द्रविड़ श्याम। आज भी दक्षिण भारतीय का रंग श्याम है, उत्तर की तुलना में। फिर किसी ने जोक बनाया, भगवान ने रूप देना शुरू किया तो उत्तर से दक्षिण तक पहुँचते सफेदी कम होती चली गई। तो दक्षिण वालो ने फरियाद करी, "अन्याय है प्रभु हम तुम्हारा भक्ति किया तुम हमे काला किया।" तो भगवन ने कहा : "चिंता मत करो वत्स ! सब सेटल किया जाएगा।" इस बार भगवन ने बुद्धि बांटनी दक्षिण से शुरू की.. और उत्तर तरफ... इतने में समझ जाओ, पूरा लिखना जरुरी नहीं।
पढ़ने से नई नई बाते पता चलती है.. नया ज्ञान मिलता है, अभिवृद्धि होती है, उस ज्ञान से सहमत हो तो आप मानोगे, अन्यथा टिका करोगे। कुछ दिनों पहले एक बुक पढ़ रहा था। अक्सर में पुस्तकका नाम तथा लेखक भूल जाता हूँ। लेकिन शायद लेखक पुरातत्व विभाग का कर्मचारी था। उसने अपने एक लेख में लिखा था, कृष्ण के पूर्वज बाहर से आए थे, सबसे पहले गुजरात के सौराष्ट्र में उतरे, फिर धीरे धीरे मथुरा के आसपास आगे बढे और स्थायी हुए। और कृष्ण के समय में कृष्ण अपने पूर्वजो की भूमि सौराष्ट्र में वापस लौटे। हालाँकि यह लेखक कृष्ण को असुर मानता है, क्योंकि एक समय में हिमालय की गोद में बसे आर्य तथा इस भूमि की बाहर की 'असीरियन' प्रजा का संघर्ष सर्वविदित है। सबने सुना होगा असुर ऋषिमुनिओ की यज्ञादि प्रवृत्तिओ के कट्टर विरोधी थे। अब जिसे मैंने कुछ दिन पूर्व पढ़ा उसकी थियरी अनुसार कृष्ण के पूर्वज इजिप्त के आसपास जहाँ इस 'असीरियन' प्रजा का मूल केंद्र था, वहां से आए थे, तो स्वाभाविक है कृष्ण भी असुर ही होंगे, एक तर्क और देते कहता है की कृष्ण का रंग/वर्ण श्याम था, श्वेत आर्यो से बिलकुल अलग। दूसरा तर्क देते लिखा है की कृष्ण ने अपने प्रारंभिक काल में आर्यो के देवो का विरोध भी किया है, और हम जानते है की कृष्ण ने व्रज में इंद्रपूजा पर रोक लगवाई थी। मैं इन सब बातो में उतरे बिना इतना अवश्य ही जानता हूँ की भारतीय उपमहाद्वीप पर बस्ते लोग न तो पूर्ण श्याम है न तो पूर्ण श्वेत.. पर आजकल यह सोसियल मिडिया, टीवी वगैरह में शारीरिक श्वेत रंग को इतना उच्च दिखाया है की जिनकी चमड़ी काली है वे खुद को असहज पाते है.. ब्यूटी प्रोडक्टस का तो धंधा ही इन रंगो पर चलता है। और उन्ही लोगो ने यह भेद उत्पन्न किया है। धीरे धीरे लोग मानने लगे की मेरा रंग काला है तो मैं कुरूप हूँ। पर यह भूल जाते है की वासुदेव कृष्ण भी तो श्याम वर्ण के थे। कृष्ण और श्याम दोनों का अर्थ भी तो काला ही है। जब कृष्ण ने जगद्गुरु की पदवी हांसिल की तो आज के समय में हम क्यों अपने रंग या वर्ण को लेकर असहज हो जाते है ?
भारत के अन्य राज्यों में जब भी कोई गुजरात सुनता है तो उसके दिमाग में बस दो-तीन बाते घर कर चुकी है वही दिखाई देगी। एक तो निश्चित तौर पर होगा 'गरबा' और दूसरे कुछ खाने-पिने नास्ते होंगे उसमे भी तारकमेहता के शो के कारण फाफड़ा-जलेभी ओवर हायप हो चुके है, दूसरे खमण-ढोकळा। हाँ, पसंद है लेकिन गुजरात सिर्फ इतने में सिमित नहीं है। भौगोलिक दृष्टि से गुजरात के पास सबसे लम्बी समुद्री सिमा है, भारत का सबसे व्यस्त बंदरगाह है, रण है, पर्वत है, तीन राज्यों को जलपान कराए उतनी बड़ी नदी है। और भी बहुत कुछ है, व्यापारी दिमाग है। और राष्ट्रभक्ति भी कूटकूटकर भरी है, राष्ट्रभक्ति का इस लिए लिखा क्योंकि मुझे अखिलेश यादव की वह कमेंट याद आ जाती है जिसमे उसने कहा था की, "गुजरात के लोग सेना में नहीं जाते तो उनकी राष्ट्रभक्ति क्या होगी ?" इस विषय पर मुझे प्रत्युत्तर देना जरुरी नहीं लगता। क्योंकि मैंने कहीं पढ़ा था की *#*# से कभी विवाद में नहीं उतरते।
भूल गया, मैं लिख रहा था गरबा पर.. वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी पर तथा यूट्यब पर गरबा के विषय में बहुत सी माहितियाँ उपलब्ध है, पर मैं बताना चाहता हूं एक सांस्कृतिक विरासत के विषय में। गरबा मैं अब तो डांस जुड़ चूका है। लोग क्लासीस ज्वाइन करते है, लेकिन पहले जब खेलते थे वह आज के फेंसी स्टेप्स से बहुत ही अलग था। गरबा अलग है, रास अलग है, आज जो बड़ी बड़ी आयोजित नवरात्रि होती है जिसमे टिकट्स वगैरह लेनी होती वह डांस अलग होता है। गरबारास भी बोल सकते है, क्योंकि दोनों मिलते झूलते ही है। जैसे चारण लोग खेलते है, 'चारणी रमत', पोरबंदर के मेर लोग खेलते है 'मणियारो रास'.. या फिर मुस्लिम लोग ताजिया खेलते है, बहुत समानता मिलेगी। नवरात्री का गरबा है, वह पहले के समय केंद्र में कुछ गिने चुने वाजिंत्रों में तबला या ढोल और झांझ दो-तीन लोग गाएंगे, कुछ लोग उसे केंद्र की परिक्रमा करते हुए गाते गाते गरबा खेलेंगे। यह होता था वास्तविक गरबा। मेरे गाँव में तो आज भी बिना किसी वाजिंत्र के सिर्फ गाते हुए ही खेला जाता है। हमारी मर्यादा परंपरा अनुसार पुरुष पहले एक राउंड खेलकर चले जाते, और फिर स्त्रियां और बच्चे खेलते थे। धीमे धीमे जमाना मॉडर्न हुआ, शहरो में साथ खेलने लगे, कुछ गाँवों में अब भी पुराणी परम्पराए चली आ रही है।
फिर से विषय से एक बार भटक गया, मैं यहाँ कुछ विडिओ लिंक्स ऐड कर रहा हूँ, पहले वह देखिए।
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सबसे पहले विडिओ में ईरान के खोरासन प्रान्त का लोकनृत्य है, दूसरा विडिओ भी वहीँ का है, तीसरा पाकिस्तान, तीसरा-चौथा बलोचिस्तान, पांचवा अफ़ग़ानिस्तान, उपरोक्त छठे नंबर पर बलोचिस्तान के विडिओ में तो ढोल की धुन भी गरबा की है। कितनी सारी साम्यता है, आप खुरासानी नृत्य देखो और फिर यूट्यूब पर सर्च करो चारणी रमत। एक और देखने जैसा है कच्छी वावल। यह एक लोक लोकनृत्य की परम्परा है जो इस क्षेत्र में बहुत साम्य है। ईरान से लेकर गुजरात तक, वर्तुलाकार केंद्र में वाजिंत्र, उसकी परिक्रमा में घूमते हुए खेलना। भाषाकीय और क्षेत्रीक दृष्टि से थोड़ी भिन्नताए है, लेकिन भूतकाल में मिलती झूलती परंपरा रही होगी। इतिहास भी यही कहता है के गुजरात में जितने रजवाड़े थे वे शासको के पूर्वज कभी न कभी पश्चिम से ही आए है। आर्य संस्कृति के विस्तारण के पश्चात जब संकोचन स्थिति आई तब पश्चिम में बसे सब वापस मूल भारत की और आने लगे। कुछ वहां बसे रहे, लेकिन संस्कृति जीवित है। जैसे अरबी लोकनृत्य है, वह भी वर्तुलाकार उठते-बैठकर खेलते है। अच्छा वैसे गरबा खेला जाता है, किया नहीं जाता। आराधना में व्यस्त होकर अपने आपको आद्यशक्ति को सौंप दिया जाता है। गरबा शादियों में खेला जाता है, कुछ हर्षोल्लास पूर्ण प्रसंगो भी।
रास भी उतना ही प्रसिद्द है जितना गरबा। कुछ अलग अलग मान्यताए है, कहते है माताजी की प्रशस्ति में खेला जाए वह गरबा, और अन्य स्थानों पर खेला जाए वह रास। रास खेला जाता है लकड़ी की दांडी के साथ, तथा ढाल-तलवार के साथ भी खेला जाता है। उसमे भी सौराष्ट्र में तो बहारवटीया लोगो के बहुत रास है, 'राहडो' कहते है। बहारवटिया वह व्यक्ति हुआ जो राज्य के सामने विद्रोह में उतरा है। सौराष्ट्र में प्राचीनतम बहारवटीये थे सरवैया जैसाजी और वेजाजी, और सबसे आखिर भारत की आज़ादी के समय हुआ भूपत जो अपने अंतकाल में भागकर पाकिस्तान चला गया था। कुछ रॉबिनहुड स्टाइल समझ लो। किसी अन्याय के सामने विरोध करना, राजा या अपने विरोधी को लुँटकर प्रजा में बाँट देना। तो लोग भी किसी क्रूर राजा के सामने खड़े हुए बहारवटिया को शरण तथा मदद कर देते थे। कविगण ने भी खूब गुणगान किया है इनका और इनके रास भी खेले जाते है।
चलो आज इतना बहुत है..! आप भी अपनी मातृभाषा तथा सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करे तथा बढ़ावा जरूर दे।
बहुत सराहनीय और सहेजने योग्य पोस्ट 👌👌
ReplyDeleteआपका ज्ञान अद्भुत है। ऐसे ही हमारा ज्ञानवर्धन करते रहें।🙏🙏
बहुत शुक्रिया पढ़ने के लिए...!🙏
DeleteKya baat hai kafi kuchh jaanne ko mila....such an informative nd interesting post...wo sare pakistan ke baluchistan ke sbke dance steps even sound v kitne similar.samantaye hi to hame ek bnati hai bt ye logo ne jo bnaya hai mera mera karke.sb yahi krte reh jayenge .. anyways taarak mehta ne sach me jalebi fafada ko hyp bnaya kuchh jyada hi mujhe dhokala jyada pasand h😄.
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया पढ़ने के लिए...!🙏
Deleteसराहनीय पोस्ट 🙌🙌🙌
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया पढ़ने के लिए...!🙏
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