एकतरफा आकर्षण अच्छा तो नही माना जाता, पर अकाट्य है। हो जाता है, स्वाभाविक भी है। ऐसा भी जरूरी नही है कि सामने वाले पात्र को भी प्रत्याकर्षण होना चाहिए। यदि तुम अपने आकर्षण के प्रति जागरूक हो तो कहीं भी कोई समस्या नही है। यह आकर्षण वाली स्थिति में मन तो सदा ही कहता है कि जाओ कह दो उसे, वो पसंद है। पर बस पसंदगी की व्यक्त व्याख्या फिर कुछ और ही निकल आती है। स्वाभाविक सी बात है, पसंदगी की कोई सीमा नही होती, जैसे पसंदगी का कलश तो स्कार्लेट जोहन्सन पर भी उतरता है तो वह तो संभव नही है न की वह तुम्हारी हो जाए ? अच्छा, आकर्षण की कोई सीमा, मर्यादा, बंधन, कुछ भी तो नही इसे.. लेकिन समस्या तब होती है जब तुम आकर्षण को व्यक्त कर दो। आकर्षण व्यक्त करने की वस्तु ही नही है। अनुभव योग्य है। जैसे हम पुरुषों के विषय मे कहा जाता है, हर किसी पर दिल आ जाता है। वह आकर्षण ही तो है, और हकीकत भी। अब आकर्षण गंभीर भी हो सकता है, और क्षणभंगुर भी.. लेकिन यह तो अखंड बात है कि ज्यादातर पुरुष अपना आकर्षण व्यक्त नही करते, या फिर कह नही पाते क्योंकि भय होता है, की जब तक आकर्षण व्यक्त नही हुआ है तब तक आकर्षण के सूत्रधार को देखना तो संभव है।
आकर्षण को उम्र-मर्यादा भी नही है, यह दोनों स्त्री-पुरुषों को लागू होता है। स्वयं का रूप कैसा भी हो पर नाट्यमंच के अभिनेत्री/अभिनेता पर आकर्षण आ ही जाता है। क्योंकि आकर्षण बाहरी दिखावे पर निर्भर है, रंग, रूप, छटा, चाल, पहनावा, प्रत्येक स्थिति और वस्तु पर बाध्य तथा निर्भर है यह आकर्षण। अब आकर्षण है, तो दो पक्ष और खड़े होते है, पसंद और नापसंद। उसने यह किया तो ठीक किया, पर उस दिन उसने वह गलत किया था। मित्रो से भी तो एक अनन्य आकर्षण होता है, यह लगाव, या खिंचाव तो अद्भुत ही है। उसमे भी यदि विपरीत लिंग के मध्य मैत्री है और तब आकर्षण उत्पन्न हुआ.. अवर्ण्य है कदाचित।
आकर्षण अबाध्य है, सहनशील भी। किसीके प्रत्युत्तर की आशा में राह तकते रहना, और बार बार नोटिफिकेशन पैनल चेक करते रहना। आकर्षण ही कल्पना को उत्तेजित करता है, आकर्षण को मैं ब्रह्मांश क्यों न कहूँ? आकर्षण ही तो है जो स्वप्नों का सर्जन करता है, स्वप्न के भीतर छोटे से छोटी चीजो का ध्यान रखता है, अरे वाद-संवाद का भी निर्माण करता है। सब कुछ तो इसी आकर्षण पर निर्भर करता है फिर भी बखाना जाता है प्रेम.. क्योंकि वह अनन्य है। आकर्षण अनेक होते है, पर इस अकेले प्रेम आगे पंगु दिखते है। हालांकि मैं तो आकर्षण का उपासक हूं और प्रेम का विश्लेषक, फिर भी प्रेम का यह गुण तो स्वीकार्य है ही कि वह अकेला काफी है। अच्छा, प्रेम ही सर्वस्व है ऐसा भी तो नही है। प्रेमी को भी अन्य आकर्षण तो उद्भवते है ही, बस वह प्रेम के भय से किसी से कहता नही है। फिर प्रेम तो भयजनक ही हुआ न.. जिस पर हावी हुआ उसकी मर्यादाएँ निश्चित कर देता है।
मैंने ऊपर लिखा कि आकर्षण बाह्य रूप पर निर्भर करता है, वह अपूर्ण है। आकर्षण तो बिना देखे भी हो सकता है। श्रवणेंद्रिय भी आकर्षण का निर्माण करने के लिए क्षमतावान है। किसी के लेखन से तुम प्रभावित हुए हो तो उसके प्रति भी तो आकर्षण उद्भवता है। या जैसे किसी को बिना देखे मात्र उसकी लेखनी के कारण उस व्यक्ति प्रति आकर्षण उत्पन्न हो जाए.. प्रत्येक संभावनाओं में आकर्षण का उत्पन्न होना संभव है..
पता नही फिर भी मुझे लगता है उस आकर्षण को अव्यक्त ही रहना चाहिए.. या तो हमने रची प्रेम की पूर्वधारणाओं के कारण, या फिर क्षोभ या भय इसका कारणभूत है। जो भी हो, व्यक्त आकर्षण की पहले कही वही दो संभावना उठ खड़ी होती है कि या तो व्यक्त आकर्षण संबंध ही तोड़ देगा, या फिर जन्मायेगा उसी कथित प्रेम को.. और प्रेम ने तो कदाचित इस पृथ्वी पर किसी को सुख दिया ही नही है.. बस वह कुछ वर्षों के कथित प्रेम के पश्चात तो कठोर दुनिया के थपेड़े सहर्ष स्वीकारने ही होते है। शायद इसी कारण से आकर्षण को प्रेम से ऊपर मानता हूं कि भले ही एकतरफा अव्यक्त आकर्षण हो.. कितनी कल्पना और और कितने स्वप्नों को खड़ा करता है वह.. कल के ही अनुसंधान में कहूँ तो जैसे मेघ इला के आकर्षण के वश होकर बरस तो रहा है, पर संभावना तो यह भी है कि किसी की उगी हुई फसल पर अतिरेक हो जाए। या फिर आकर्षण के पाश में पीड़ित होकर चकोर डाली पर ही अपना सिर पटके। या आकर्षण में अंधी होकर रसना जठराग्नि पर अत्यधिक भार डाले.. अति तो किसी की ही अच्छी नही फिर वह आकर्षण ही क्यों न हो ?
इशारे समझना अब बहुत आवश्यक हो चुका है। संबंध कोई भी हो, कभी तो अनुभव होता ही है। त्रास, त्राहि, तौबा.. सर्वत्र ही है। कड़वे संबंधों को भी हम बिल्कुल ही छोड़ते नही है, थोड़ी दूरी बना लेते है बस। कभी न कभी तो संबंध सुधरेंगे.. इसी आशा में। फिर चाहे जीवन पूरा ही व्यतीत हो जाए। बस हम भाग्य पर दोष डालकर, प्रतिदिन भाग्य को कोसने में लग जाते है। उंगली सड़ी हो तो काटकर अलग की जा सकती है पर आकर्षण का घायल ह्रदय सड़े तो ?
(दिनांक : १४/१०/२०२४, २२:५९)