इला के आकर्षण में डूबा मेघ भूल चूका है खेत मे बड़ी हो रही फसलों को..! || Megh, immersed in the attraction of Ila, has forgotten the crops growing in the field..!

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बात शुरू कहाँ से करनी है, वहां यदि क्षोभ आड़े आ रहा हो तो क्या हुआ.. मुबारक हो अकेलापन रास आ रहा है..!!! यह कतई जरूरी नही है कि सदा ही उमंग और उत्साह में रहना है.. तुम्हे पता है प्रियंवदा ! मैं कई बार अकेलापन चाहता हूं, पता नही मैं कुछ ज्यादा ही सोचता हूं.. मुझे अकेलापन पसंद भी है और तुम्हारा साथ भी मुझे चाहिए.. फिर अकेलापन हुआ कहाँ? शायद वहीं की मैं स्वयं पर निर्भर नही रह पा रहा हूं.. तुमसे कह तो रहा हूँ पर भय भी है.. मेरे प्राकट्य का.. मेरी वास्तविकता के प्राकट्य का, मेरे कलुषित स्वरूप के प्राकट्य का.. मुखौटे के पीछे छिपे घिनौनेपन के प्राकट्य का.. सम्पूर्ण शुद्धता किस में होती है.. नही होती। हर कोई अपने रहस्यों को अनुजागर ही रखता है। लेकिन मैं ! मेरे रहस्य तुम्हे पता है.. कुछ तो सबके सामने रखे है पर कुछ पन्ने जो तुम्हारे पास अप्रकाशित, अंधेरे में पड़े है वह किसी दिन भय तो खड़ा नही करेंगे ? मैं चाहता हूं कि मेरा मुखौटा ही मेरी पहचान हो.. इस मुखौटे के पास वह सब कुछ है जो मुझ स्वयं में नही है। खेर, जाने दो यह सब.. 



ખરેખર, આજે ઉઘડતી ચંદ્રિકાનો છાંયડો શીતળતા તો અર્પી રહ્યો છે. ખુલ્લું મેદાન, મંદ વાયરો, ભેજવાળા તૃણોની ખુશબો.. મેદાન ને બીજે છેડે ચરતી ભેંસોના ગળે વાગતી ઘંટડી વચ્ચે સુર પુરાવતો ઘણે દૂર થી વા ભેગો ફંગોળાતો આવતો રેલ નો હોર્ન. યાદીઓ ફરી એક વાર ખોતરી રહી છે, કરડી રહી છે. કદાચ આ જ મારું આશ્રયસ્થાન છે. જ્યાં હું એને માણી શકું છું. મારી કલ્પનાઓ માં, કોઈ શાંત પ્રકૃતિ ના ખોળે, વહેતી નદીના શ્વેત રેતાળ પટ પર, તારા ખોળે માથું ઢાળેલ હું.. ન તું કંઈ કહેજે, ન હું કંઈ કહીશ.. છતાં બંને એકમેક ને સાંભળશું.. સાથે પ્રકૃતિને, પ્રકૃતિના ઈશારાને, આ અત્યારે કલકલતી ટીટોડી ને પણ.. હાં ફરી મળશું, કોઈ સુંદર દિવાસ્વપ્નમાં.. ફરી મળશું, જ્યારે જાગતા હશું..


किसी का लिखा हुआ पढ़ना आसान है, उसे समझना थोड़ा मुश्किल, लेकिन शब्दसः उसकी भावना का अर्थ निकालना असंभव। क्योंकि हम पढ़ते है तब हमारे आसपास का वातावरण भी शायद उसे पढ़ रहा होता है। किसी के लेखन में से नवनीत या उसका इशारा भी कई बार हम चूक जाते है। मैं तो कभी भी किसी की गहन लेखनी या दबी बाते नही समझ पाता। शायद मैं भी ऐसा ही करता हूँ, अपने शब्दों को गूंथते हुए। क्योंकि हम कभी सीधे सीधे अपनी भावना व्यक्त नही करते। हम चाहते है कि सामने वाला हमारे शब्दो से प्रभावित हो, वह खुद ही हमारे शब्दो मे से हमारी भावना को पहचाने, चाहे वह प्रेम हो, क्रोध हो या कामना। यही तो मुझ जैसे क्षणभंगुर लेखक का अंतर्द्वद्व है। समझना, सही से समझना बहुत मुश्किल है। वो पीयूष मिश्रा वाला गुलाल का गाना है न, "इक बगल में चांद होगा, इक बगल में रोटियां" मैं वास्तव में यही कल्पना कर रहा था कि कोई मेरे जैसा सरफिरा छत पर चंद्रमा को देखता हुआ रोटियां तोड़ रहा होगा। हकीकत है, मैं नही समझता इशारे.. कभी नही समझा किसी की गूढ़ता, कभी नही जान पाया मर्म को.. लोग तो फिर भी कई इशारे देते है, समय का इशारा एक बार ही मिलता है, जो मैं बारबार चूकता हूं। आसमान में बिजलियाँ कड़क रही है, इला के आकर्षण में डूबा मेघ भूल चूका है खेत मे बड़ी हो रही फसलों को..!


यह बादलो से घिरे आसमान से भी चंद्रमा झांकना नही चूकता, कैसे चूक सकता है? चकोर की चिंता उसे भी तो होगी? और एक तुम हो, पता नही कौनसे जलधर के पीछे जा छिपे?


|| अस्तु ||


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