प्रियंवदा ! एक समय आता है, जब यादे घेरती है। यादे दोनो होती है, अच्छी भी, बुरी भी। लेकिन ऐसा लगता है कि इनका आना वातावरण पर, या हमारे आसपास घटित हो रहे घटनाक्रमो पर निर्भर है। कभी हमारा मन प्रफुल्लित हो तब अगर यादों का घिराव हो वह जरूर ही मधुर यादे होंगी। निराश मन को घेरने वाली यादे भी निराशा से जुड़ी हुई होती है। वास्तव में ! कितना अद्भुत तंत्र है मगज का। हम कई बार इन यादों में खो जाते है चाहे भीड़ में बैठे हो। यादों का भी भाव होता है, कई यादे स्वार्थी होती है। तात्पर्य कि किसी स्वार्थी प्रसंग से जुड़ी हुई होती है। चलो आज यही लिख देता हूँ..!
मेरा एक वकील मित्र है। संजोगवशात आज मैं उसके द्वारे चढ़ गया। आज अनुभव हुआ कि यदि वकील लेखक बन जाए तो तो लेखनी का एक नया ही आयाम बन सकता है। क्या क्या मुद्दे आते है उनके पास.. और कैसे कैसे मुद्दे..! आश्चर्य में गरकाव कर दे ऐसी बाते आती है उनके पास.. चलो कहानी सुनाता हूँ , उस कहानी का फैंसला आप पाठकों पर छोड़ दूंगा..! आपको भी आज जज बनने का मौका मिलेगा।
एक गांव था। रमेश और सुरेश दो चचेरे भाई थे। भाई से ज्यादा मैत्री का संबंध था दोनो के बीच। खाते, पीते, पार्टियां करते, कांड भी साथ मे करते। लेकिन समय ने इनके साथ भी आगे एक बड़ा कांड कर दिया। समय समय की बात है, दोनो ही खेती करते थे, पर एक दिन सुरेश ज्यादा कमाई के चक्कर मे शहर चला गया। रमेश वहां गांव में रहते हुए खेती पर ही निर्भर रहा। सुरेश कुछ होशियार भी था, तो शहर में उसने खूब धंधा जमाया। थोड़े ही समय मे शहर में भाड़े के बदले खुद का मकान ले लिया, नई चमचमाती मोटरसायकल, और हाथ मे लेटेस्ट फोन। गांव को लौटा तो सबसे पहले रमेश से ही मिला। आखिरकार वह भाई सही लेकिन उसका अच्छा दोस्त भी तो था। रमेश के हालात भी ठीक ही थे खेती से ठीक ठीक काम उसका भी चल रहा था। फिर भी रमेश को सुरेश की इतने कम समय मे इतनी अच्छी प्रगति देख थोड़ी लालसा हुई.. तो रमेश के पास दो पुश्तैनी पांच-पांच तोले के सोने के बिस्किट पड़े थे वे सुरेश को दिए और उस पर लोन लेकर रमेश ने भी कुछ धंधा करना चाहा। सुरेश ने उसे लोन वगैरह दिलवाने में मदद का वायदा किया, लोगो से जान-पहचान कराई। समस्या का प्रारंभ अब हुआ। सुरेश का एक एक्सीडेंट में मृत्यु हो गया। अब वह बिस्किट वाली बात रमेश और सुरेश ही जानते थे। सुरेश की मृत्यु के बाद रमेश ने सुरेश की पत्नी से उन दो बिस्किट का जिक्र किया। सुरेश की पत्नी आगबबूला हो उठी, "मुझे क्या पता आप दो भाइयो का व्यवहार। एक तो आपके भाई इन दो बच्चों को बेसहारा छोड़ कर चले गए।" कहती अपने दो बेटों के सर पर हाथ रखती रो पड़ी। अब मृत्यु का शोक, ऊपर से दो सोनेके बिस्किट का भी शोक.. सबसे ज्यादा रमेश ही रोया। दो भाइयो का स्नेह था वह अब वैर में बदला वह भी सुरेश की गैरहाजरी में। रमेश खेती तो करता ही था, अब वह सुरेश की खाली पड़ी जमीन पर भी खेती करने लगा। सुरेश ने तो गांव छोड़ा तब से ही खेत खाली पड़ा था। लगभग इस बात को दस साल बीत गए। सोने का भाव भी बीस हजार से आज अस्सी हजार पर पहुंच गया। सुरेश के दोनों बेटे बड़े हो गए, कमाने धमाने लगे है। अब फिर से रमेश को वे स्वर्ण के बिस्किट याद आए है। और सुरेश के बेटों को धमका रहा है, की मुझे मेरा दस तोला सोना दो। सुरेश के बेटे 'सिर्फ अपने बाप पर लगे आरोप' को धोने के लिए दस वर्ष पूर्व के सोने के भाव बीस हजार से दस तोला यानी दो लाख देने को तैयार है। पर रमेश अड़ा हुआ है कि उसे दो सोने के बिस्किट ही चाहिए।
देखो मैं कोई बेताल नही जो कहानी को रसप्रद तरीके से लिखूं, तुम कोई विक्रम नही हो जो तुम्हे इसपर अपना निष्कर्ष देना ही देना है..! फिर भी प्रयास करना की तुम्हारी दृष्टि से अब किसे क्या करना चाहिए। वकील मित्र को तो मौज है क्योंकि उसे तो यह लंबा ग्राहक मिला है, क्योंकि इस कथानक की न्यायप्रक्रिया अवश्य ही लंबी जाएगी ऐसा मुझे मेरे वकील मित्र ने बताया। चलिए मैं भी अपनी ओर से कुछ तर्क देता हूँ जिससे आपकी निर्णयशक्ति को मैं थोड़ी ओर पेचीदा कर सकूं।
- रमेश का सोना गया, वह बात तो निश्चित है लेकिन अब उसे अपना सोना भूल जाना चाहिए क्योंकि कोई उन दोनों के व्यवहार का साक्षी कोई नही है।
- सुरेश के बेटों को अपने बाप पर लगे आरोप को मिटाने के लिए रमेश की भरपाई कर देनी चाहिए, जैसी रमेश चाहे।
- रमेश लगभग दस साल से सुरेश की जमीन से खेती की उपज ले ही रहा है तो अब उसकी भरपाई हो चुकी है ऐसा मान लिया जाए ?
- क्या पता सुरेश की पत्नी उन बिस्किट के विषय मे जानती हो, और उसने छिपा रखे हो।
- सुरेश के बेटे भी एक तरह से सही है कि उनका तो इस व्यवहार से कोई लेना देना नही था तो वे दो लाख देकर अपना खेत रमेश से छुड़ा ले। क्योंकि उनकी तो कोई गलती नही है इस प्रकरण में। लेकिन अगर सुरेश की पत्नी के पास बिस्किट है तो फिर तो सुरेश के बेटे भी आरोपी माने जाए।
खैर, ऊपर दिए तर्क मैने अपनी और से आपके प्रतिभाव को तनाव में डालने के लिए लिखे है। क्योंकि यहां इस प्रसंग में मुझे तो साहित्यिक या दार्शनिक दृष्टि से एक आसक्ति का ही भाव मालूम पड़ता है। रमेश आसक्त है अपने स्वर्ण के पीछे, सुरेश के पुत्र आसक्त है अपनी जमीन के लिए। किसी दिन यह आसक्तिओ का टकराव होगा। युद्ध मे परिवर्तित होगा। और जो जीतेगा उसका सत्य स्वीकार्य होगा। क्योंकि सत्य भी तो तीन होते है। एक रमेश का सत्य है, एक सुरेश के बेटों का सत्य है, और एक तीसरा सत्य है जो सुरेश के साथ अलोप हो गया। स्वर्ण सदा से ही युद्ध का कारण बनता आया है, फिर वह स्वर्ण की लंका हो, सोमनाथ या द्वारिका हो, या आज के अफ्रीका की खदानें हो। स्वर्ण के भीतर एक आकर्षण तो छिपा है। और उस आकर्षण के भीतर छिपी है युद्ध और नाश की संभावना। ऐसे ही इस भारतभूमि को स्वर्ण का कब्रस्तान नही कहा जाता है। पूरे विश्व मे घूमता सोना भारत मे आकर मानो भूगर्भ में समा जाता है। भारत मे आया सोना कभी भी बाहर नही जाता। कोई अगर लूंट कर ले गया तो आज उस लुटेरे की भूमि के हालात देख लो.. वह सोना, लूटने वाले को बाजार में उतारना ही पड़ेगा, और बाजार में उतरा सोना घुमफिरकर उसी भारतभूमि के भीतर पुनः कहीं छिप जाएगा। या फिर वह स्वर्ण नक्कासी को प्राप्त कर हार बनेगा, किसी भार्या के गले का सुशोभन करेगा, और वह वल्लभा आज कड़वाचौथ को छत पर खड़ी छलनी से चंद्र को देखती हुई अपने वल्लभ को घुरेगी।
(हमारे यहां तो यह कड़वा चौथ नाम का कोई त्यौहार नही है, पर यहां जिस मैदान में बैठा हूँ वहाँ ठीक सामने किसी अन्य राज्य के व्यक्ति का घर है, वे युगल छत पर खड़े इस त्यौहार को मना रहे दिखे, तो अभी यह कथानक लिखते हुए उन्हें भी सम्मिलित कर लिया।)
हमारी आसक्ति हमसे क्या नही करवाती? प्राण हरने तक का कार्य यह आसक्ति करवा सकती है। कोई निर्जीव धातु में आसक्त है, कोई सजीव प्रेयसी में आसक्त है, कोई भावना का आसक्त है, कोई मात्र देह पर आसक्त है। अब जहां आसक्ति होती है, वहां विरक्ति भी अपना अस्तित्व जोखम में लिए छिपी बैठी रहती है। जिस दिन आसक्ति का प्रभाव कम हुआ, तुरंत विरक्ति अपना प्रभाव बना लेगी। भेद है, आसक्ति कुछ करने को प्रोत्साहित करती है, जबकि विरक्ति निष्क्रियता को, निष्कामता को। विरक्ति प्रथम सोपान है वैराग्य का भी। अति आसक्त भी सामाजिक दूषण है, और वैराग्य दूषण तो नही पर सामाजिक प्रगति को अवश्य ही एक पूर्णविराम लगा देता है इस दृष्टि से वैराग्य भी तो अच्छा नही। हाँ ! न पूर्ण आसक्त और न ही पूर्ण विरक्त.. यह भाव जिसके चित्त में उत्पन्न होता है वही सबसे उत्कृष्टता का शिखर है। जिसे नीरक्षीर दृष्टि भी कह सकते है। आसक्ति तो जन्मजात ही है, पर विरक्ति के लिए अवश्य ही संशोधन और प्रयास करना पड़ता है। बचपन के किसी प्रार्थना गीत का एक चरण मुझे सदा से याद रह गया है, "आसक्ति चित्तनी राणी.." मतलब आसक्ति है वह चित्त की रानी है। आसक्ति को चित्त का अर्धांग समझ सकते है। तो आसक्ति तो एक मूलभूत भाव हो गया। फिर जो चीज पहलेसे प्राप्त है उसकी कदर मनुष्य कम ही करता है, इसी कारण से विरक्ति के भाव को शोधा गया होगा। जिसने विरक्ति के भाव को पा लिया, उसे हमने सर्वोच्च माना। आज भी हम वैरागी साधुओं को सादर्भाव से पूजते है। क्योंकि हम आसक्त है, और उन्होंने विरक्ति को पा लिया है।
चलो यार.. कुछ ज्यादा ही गंभीर और दार्शनिक हो गया.. यह भी तुम्हारी आसक्ति ही तो है प्रियंवदा..!
(दिनांक : २०/१०/२०२४, २३:४२)