वरदान - प्रेमचंद की कहानी बहुत सही है। || Book Review of VARDAAN by PREMCHAND ||

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आजका दिन.. जैसा प्रत्येक सोमवार बीतता है वैसा ही था। वही नीरसता से भरपूर ऑफिस.. जहां हम नॉकरियात वर्ग खेतमज़दूरो की भांति किसी और कि प्रगतिको थोड़ा और सुनिश्चित करते है। दोपहर को लगभग बारह बजे, कुछ नया सूझ नही रहा था, तो YQ पर चक्कर मार आया.. कुछ पुराने लोगो को खोजने की कोशिश की, उन्हें पढा.. YQ अभी शायद पहले की तरह बिल्कुल ही नही रह गया था। पहले वाला उल्लास और उमंग अब वहां दिखाई नही पड़ता। नए-नए लोग दिखते है। अब पुनः नए सिरे से लोगो से पहचान करनी मुझे कुछ रास भी नही आती और थोड़ा मैं झिझकता भी हूँ। तो कल रात को कुछ लिखा था, वह वहां पोस्ट कर आया, और कुछ पुराने वालो ने क्या कुछ लिखा है, या क्या कर रहे है वह जान आया। शायद इसे ही स्टॉक करना कहते है ?



बहुत दिनों.. नही.. लगभग महीनों.. नही, लगभग सालभर बाद स्नैपचेट खोला.. सालभर पहले दीवाली के आसपास म.प्र. गया था तब पांचेक दिन फ़ोटो वगेरह खींचने के लिए USE किया था, उसके बाद आज खोला.. पता नही इसमें करना क्या है.. लोगो ने काले अंधेरे भेज रखे थे, मैंने सारे स्नेपस देख देख कर उनका और मेरा स्नेपस्कोर बढ़ाया, पता नही अब यह स्कोर कौनसी गिनीज़ बुक में नोन्धपात्र होगा..!


खेर, दोपहर के ढाई बजे रहे थे। मैं इंस्टा में कुछ पेजेस की कविताएं पढ़ने में लगा था, तभी प्रियंवदा ने टापली मारते कहा, "तुमने वरदान पढ़ी ?"


"नही।" मैंने कहा।


"मुझे पता ही था।"


"अब क्या कहूँ.. प्रेमचंद जी ने शुरुआत से ही मेरे अनुमानों को भंग करना शुरू कर दिया था।" मैंने अपनी व्यथा सुना दी।


"हाँ, और ending तो बिल्कुल ही अलग है।"


कुछ दिनों पहले इंस्टा के गलियारेने मुझे यह बुक सुझाई थी कि इसे पढ़ो।


(पहले तो इस मैदान में सिर्फ टिटौली ही मेरा ध्यानभंग किया करती थी। आज कुछ दो हाथपैर वाले काले-पीले तोते भी टें टें कर रहे है, तीन बार जगह बदल चुका हूं आज तो लिखने के लिए..)


हाँ ! तो मैंने गूगल को पूछा, तेरे पास ऑनलाइन पड़ी है क्या ? पहले तो उसने अमेजोन और फ्लिपकार्ट की लिंक्स दी कि जा खरीद ले..!! पर उसी के थोड़ा नीचे पूरी pdf फाइल मिली.. अब नेकी और पूछ पूछ.. मैंने तीव्रता से फ़ाइल डाउनलोड की। और पढ़ने बैठ गया।


साहित्यिक दृष्टि से, वर्णन के विषय मे, अद्भुत है। कथानक भी बहुत खूब.. मैंने शायद पहली बार ही इन्हें पढा है। हालांकि मुझे याद कभी नही रहते पुस्तको के नाम और लेखक। मेरे साथ दो-तीन बार ऐसा हुआ है कि कोई पुस्तक पढ़ने बैठता हूँ तब सारी कहानी स्मृतिपटल पर फिर से लौट आती है, और याद आता है कि यह तो पढ़ चूका हूँ। वरदान तो नही पढ़ी थी। मैंने सरस्वतीचंद्र पूरी पढ़ी है। तब से सच कहूं तो नवलकथाओ के विषय मे परितृप्त हो चुका हूं। जैसे मेरी प्यास ही मिटा दी है उस पुस्तक ने, उस महानवल ने, उस महाग्रंथ ने। फिर भी उस 'कितने पाकिस्तान' से उपजे कंकास से मुझे भी मुक्ति तो चाहिए थी। इसी बीच नवरात्रि में ही मैंने शायद यह वरदान पढ़नी शुरू की थी।


मैं जब भी पढ़ने बैठता हूं तो कभी भी पुस्तक को आधा नही छोड़ता.. पहली बार इस 'कितने पाकिस्तान'को ही बीच मझधार छोड़ा था, छोड़ा क्या फेंककर भाग था मैं तो। 


नही ! मुझे कभी भी फर्क नही पड़ता है कि किसी ने फ़िल्म की एंडिंग मुझे बता दी। मेरी नजरे कहानी से ज्यादा वर्णन और भावना खोजती है, कब लेखक उमंग लिख रहा है, कब प्रेम के बीज रोपता है, कब वहां अंकुर खिलते है, तभी वहां पतझड़ आता है, शुष्क पवन उन नन्हे नवपल्लवों को मुरझा देते है, विरह को कैसे वर्णित किया जाता है, जब विरह वर्णन पढ़ता हूँ तो स्वयं को उसी स्थिति में कल्पना कर स्वयं भी दुःख अनुभवता हूँ। यहीं तो एक लेखक की सिद्धि फलीभूत होती है कि वह पाठक के अंतःकरण के किले को कैसे भेदता है।


मैंने पुस्तक पढ़नी शुरू की तो प्रेमचंद जी ने बहुत अच्छे से प्रताप और वृजरानी के हृदय में एकदूसरे के प्रति एक अनन्य प्रेम का बीज रोपा था। मैंने अनुमान लगाया था कि जरूर प्रताप और विरजन एक हो पाएंगे। दोनो साथ मिलकर संसार को निभाएंगे, लेकिन प्रेमचंद जी ने जब विरजन की मरती हुई माता के मुख से प्रताप को कहलवाया की "विरजन का कोई भाई नही है और तुम्हे यानी प्रताप को ही विरजन का सदा भाई की तरह ध्यान रखना है, उसके संकट में खड़ा रहना है" तब मैं खिन्न हो गया था, और बुक को आगे और पढ़ने से ब्रेक ले लिया था। मैं सचमे इस सोच में डूब गया था कि अभी ही तो बेचारे प्रेम के भाव को जानने ही लगे थे। दोनो ही एकदूसरे की पसंदगी बने थे। दोनो ही शायद एकदूसरे को मनोमन स्वीकार भी कर चुके थे। बस दोनो ने ही अपनी अपनी भावना को व्यक्त नही की थी। दोनो ही एक दूसरे के स्वप्न देख रहे थे। मैं वास्तव में यह सोच रहा था कि समय पर अपनी भावना व्यक्त न करो तो संसार और जीवन दोनो की ही परिभाषा बदल जाती है। समय रहते योग्य निर्णय न लिया गया तो सिवा पश्चाताप के या फिर सिवा विरह-वियोग में तपने के कुछ नही मिलता। और मैने उसे आधी छोड़ दी। छोड़ तो दी लेकिन भूल भी गया था। आज फिर प्रियंवदा ने जब मुझे उसकी स्मृति कराई तो आज पूरी पढ़ ही ली।


वरदान की कहानी बहुत सही है। एक मातृत्वशक्ति जगतनियंति शक्ति से प्रार्थना कर के देशभक्त सपूत को अपनी कोख से मांगती है। और उसके घर एक पुत्ररत्न हुआ। पुत्र को नन्हा छोड़ पिता प्रयाग में सन्यास ले लेता है। वह स्त्री, जिसकी गोद मे एक नन्हा बालक है वह अपना संसार सम्हालती है, अपना आधा मकान भाड़े पर देकर अपने निर्वहन के लिए आर्थिक उपार्जन उत्पन्न करती है। वहीं इस कथानक की नायिका भी प्रकट होती है। उस भाड़े पर रहने आए परिवार की कन्या 'वृजरानी या विरजन' के हृदय में बगैर बाप के पुत्र, इस कथानक के नायक 'प्रतापचन्द्र' के प्रति एक अनोखा आकर्षण उद्भवता है। दोनो को ही इस आकर्षण के पाश ने जकड़ा जरूर था पर वे दोनों ही शायद प्रेम शब्द से अनजान थे। लेखक प्रेमचंदजी ने इस कथानक में समुद्र समान आंदोलन करवाए है। नवयुवानी में कदम रखने से पहले ही विरजन का विवाह कहीं और निश्चित हो जाता है, और दोनो ही अपने अपने प्रेम को रूपातंरित करने में लग जाते है किसी और भावना में। कितना कठिन होता होगा अपनी भावना को अव्यक्त ही रखना ? या फिर जानते हुए भी की सामनेवाले की भी वही स्थिति है तब भी अपने आप पर नियंत्रण बनाए रखना। 


विरजन का विवाह उस 'कमला' से हुआ जो बिल्कुल ही अनियंत्रित था, जिसे न तो पढ़ाई करनी थी, न ही उसमे अच्छे माने जाते संस्कारो का सिंचन हो पाया था। पर इस विवाह के होने से और विरजन पर मुग्ध होने के कारण दुर्गुणी कमला भी प्रेम में आसक्त हुआ। दूसरी तरफ प्रताप अभी भी असमंजस में ही था कि उसकी आसक्ति न तो पूर्ण प्रेम स्वरूप को पामी थी और नही पूर्णतः विरह को। वह बीच मे ही कहीं झूल रहा था.. उसे पश्चाताप भी तब बहुत हुआ जब उसके मुख से कमला के प्रति द्वेषपूर्ण शब्द निकले जो विरजन की माता के लिए प्राणघातक हुए। उस अपूर्ण विरह और पश्चाताप को लिये प्रताप बनारस छोड़कर प्रयाग चला जाता है। 


कमला प्रेमोन्माद में स्वयं को भूलकर विरजन से स्नेह करता था, और विरजन का प्रेम कर्तव्य की नींव पर स्थित था। कहानी अनेको मोड़ लेती है, एक समय आता है, कमला को विरजन ने विद्या प्राप्त करने के लिए अपने से दूर किया, पत्रों में उसने अपनी विरहपूर्ण भावनाएं व्यक्त की। एक स्त्री की दृष्टि से विरह को बखूबी लिखा है प्रेमचंदजी ने। विद्यार्थ गया कमला वापस लौट न सका, किसी अन्य का देहासक्त हुआ कमला मृत्यु के शरण हुआ। विरजन को सदा का विरह, वियोग मिला, वियोगिनी बन गई वह। कमला के मरते प्रताप के मन में पैशाचिक भाव उत्पन्न हुआ। वह अब विरजन के प्रति अपने मार्ग को साफ देखकर विरजन को प्राप्त करने पहुंचा तब विरजन को एक विधवा, गर्विष्ठ विधवा, अलौकिक विधवा के रूप में देखकर उसे अपने पर क्रोध उपजा। प्रताप सन्यास ले लेता है। 


प्रताप के हृदय में जिसके प्रति प्रेमभाव का संचार हुआ था, वह भाव अव्यक्त ही रहा। बल्कि धीरे धीरे वह भाव भ्रातृभाव में परिणामित हो गया। दूसरी तरफ विरजन के हृदय में प्रताप के प्रति अंकुरित हुआ निश्छल स्नेह भी कमला से विवाह के पश्चात, एक स्त्री धर्म को निभाते हुए उसने भी उसे प्रताप के प्रति भगिनीभाव मे परिवर्तित कर दिया। सच मे कथानक बहुत ही खूब था.. इस कहानीने कई जगह मेरे अनुमानों से बिल्कुल ही भिन्न मोड़ लिए है। और कहानी का अंत.. वह तो अनुमानयोग्य ही नही था। ऐसा लगा जैसे प्रेमचंद जी ने कुछ जल्दबाजी में कहानी को मोड़ लिया, सन्यासी हुआ प्रताप बालाजी नाम से प्रसिद्ध हुआ। वियोगिनी विरजन महान कवियत्री बन गई। उस वियोगिनी ने नए पात्र माधवी में प्रताप के प्रति प्रेमभाव को उत्पन्न किया। किन्तु सदा से निराशा को पाई माधवी भी संसार का त्याग कर बालाजी की चेरी बन संसार त्यागती है और बालाजी के सन्यास को उच्चस्थान पर रखने के लिए उसके साथ भजन गाती फिरती है...


जो वर्णन है इस कहानी में वास्तव में अति अद्भुत, रस प्रवाह भी अखंड है। अभी लगभग रात के पौने बारह हो रहे है। और मेरे मष्तिष्क में उस सन्यासी बालाजी से अधिक विरही परताप की छवि बार बार उठती है, धूमिल होती है, पुनः उठ खड़ी होती है।


(वरदान को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।)


|| अस्तु ||


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