प्रियंवदा... भयंकर खालीपन छाया है.. विचार लाने के लिए भी विचार करने पड़ रहे है। यह मैदान, मैदान के मच्छर भी कुछ नया नही सुझा रहे। आज दिन भी कुछ ज्यादा ही व्यस्त गुजरा.. यह दीवाली का समय ही ऐसा होता है। आज पुलिसवाले आए थे, दीवाली मांगने.. हाँ.. मांगने ही। पिछले साल परप्रांतीय मजदूरों की पुलिस स्टेशन नोंध नही कराई और cctv काम नही कर रहे इस बहाने पर उद्योगकारो को खूब परेशान किया था। और आज उनके सहकर्मचारी हंसता मुखड़ा लेकर दिवाली मांग रहे थे। मुझे तो यही समझ नही आ रहा किस खुशी में यह लोग मांगते है.. अच्छा, इनका सिलसिला भी अलग ही चलता है। एक दिन A डिवीजन वाले आए, दूसरे दिन हाइवे पेट्रोलिंग वाले, तीसरे दिन B डिवीजन वाले, उसके अगले दिन RTO वाले.. लेकिन हमारी दातारी नही रुकनी चाहिए.. क्योंकि इनसे पंगा लेना मतलब CCTV जैसी सामान्य वस्तु के कारण केस फाइल करने की धमकी दे डालते है। खेर, आज जो साहब आए थे वे गजा के हत्थे चढ़ गए।
"बताइये साहब ! कैसे आना हुआ।" गजा अपनी मीठी शैली की जाल बिछाते बोला।
"आपके बॉस से मिलना था।"
"बॉस तो मिल में गए है, एकाध घंटा लगेगा। बताइए मेरे लायक कोई काम हो तो.." गजा शब्दो को बिछाने में उस्ताद है, और झिझकता भी नही है। क्योंकि बॉस अपनी केबिन में ही बैठे थे।
"ना फिर हम घण्टेभर बाद आते है।"
पुलिसवालों ने खोल नही दी तो गजे ने सामने से ही कह दिया, "साहब ! दीवाली कल ले गए है हाँ! १३०० नंबर की बोलेरो थी।"
"अच्छा ! वो तो A डिवीजन वाले होंगे, हम हाइवे पेट्रोल से है।" कहकर साहब चल दिए, घंटेभर बाद आने का बोलकर।
हमारे यहाँ, दीवाली के नाम पर गरीब से लेकर अमीर भी कुछ न कुछ मांग लेता है बिना झिझके.. और एक मैं हूँ.. जो प्रतिवर्ष सोनपापड़ी का डिब्बा लेकर खुश रहता हूँ..!
यहाँ मुझे लगता है ईश्वर को भी दीवाली पर सबको बोनस देना चाहिए.. एक वरदान, कि सब नौकरी करनेवालों को दीवाली पर मनचाहा बोनस मिले.. चाहे माँगनेवाला हेलीकॉप्टर ही क्यों न मांग ले.. (देखो भाई जब लिखने को कुछ भी न सूझ रहा हो तो मैं ऐसा ही उटपटांग लिखता हूँ।) वरदान एक उत्साहवर्धक वस्तु तो है ही.. अगर मुझे कोई संकेत मिला कि मेरी एक आकांक्षा पूरी हो सकती है वरदान के फलस्वरूप तो मेरी कामना क्या है वह मैं तत्क्षण यदि नही कह पाता तो लक्ष्यविहीन हूँ.. क्योंकि वरदान एक निश्चित लक्ष्यप्राप्ति का साधन है। जिसे मायथोलॉजी कही जाती है, मिथक, जिसे मैं इतिहास मानता हूं, वहां ऐसे कई पात्र हुए है, जिन्होंने कई विविध प्रकार से तप किए, वरदान मांगे.. और उन वरदान को प्राप्त कर अपना लक्ष्य साधा.. लेकिन फिर क्या ? कितनो के वरदान सार्थक थे? हिरण्याक्ष से लेकर शिशुपाल तक.. सबने मांगे वरदान निरर्थक ही साबित हुए थे। मैंने जब किसी से पूछा तब उन्होंने भी यही कहा, वरदान की जेब मे शाप भी छिपा आता है। वरदान तो वही हुआ जिससे आपका लक्ष्य साध्य हो चुका। अब आगे क्या? मन तो तृप्त नही होता, एक लक्ष्य का सोपान सर करने के तुरंत पश्चात मन कोई नए लक्ष्य की साधना में लग जाता है। क्योंकि हमने जो पा लिया वह तो हमारे लिए घर का पनीर दाल बराबर सी बात हो जाती है। (कोई वीगन भड़क न उठे इस लिए मुहावरे में मुर्गी का स्थान पनीर को दिया.. हालांकि पनीर भी विगनियो के लिए तो अखाद्य ही है..)
कैकेयी को वरदान मिले थे, परिणामस्वरूप हमे पूरी रामायण मिली। जैसे भस्मासुर को वरदान मिला था, तो जिस अक्षयपात्र से भोजन मिला उसे ही नष्ट करने दौड़ पड़ा। नचिकेता जैसो ने सदुपयोग भी किया था। अब हर कोई कुम्भकर्ण थोड़े होता है, इन्द्रासन का निंद्रासन मांग ले.. हमारे यह ग्रंथ हमे बहुत कुछ सिखाने को काबिल है पर हमे पश्चिम के सुकरात की दार्शनिक बाते पसंद पड़ती है।
अब और क्या लिखूं.. जबरजस्ती कुछ सूझ ही नही रहा है, प्रियंवदा ! तुम्हारा काम सही है, कुछ न मिला तब भी कुछ लिखने को सामर्थ्यवान तो हो.. और मैं यहां अभी भी कुछ बाते, कुछ शब्द, कुछ भावना खोज रहा हूँ।
ठीक है.. यही अस्तु कर लेते है।