प्रियंवदा ! कुछ बाते है जो सिर्फ वैचारिक दृष्टि या विचारो तक ही सिमित रहे वही अच्छा है। जैसे की कई लोग सुंदरता के विषय में कहते है। बाह्य सुंदरता और आंतरिक सुंदरता। मैंने अक्सर लोगो से सुना है की बाह्य सुंदरता कोई मायने नहीं रखती फिर वे ही लोग मेकप की हुई कन्या की रील पर कमेंट्स किये पाए जाते है। बाह्य सुंदरता असरकारक है, है और है ही। वरना "कुरूप" शब्द अस्तित्व में ही नहीं आता। न ही हमारी पसंदगी के स्तर होते। लेकिन सत्य यही है की हम बाह्य स्वरुप या सुंदरता से आकर्षित होते है, उसके बाद ही उनसे जुड़ना पसंद करते है। अच्छा, कुछ वे भी होते है जो किसी अन्य की सुंदरता से इतना प्रभावित हो जाते है की स्वयं के रूप को कम आंकते है, कहीं पर अपनी खुद की फोटो लगाने से भी झिझकते है। फोन से दस-बारह फोटो खिंचवाकर सारी ही डिलीट कर देते है। इसी लिए तो कहा, वे सब चोंचले है जो कहते है बाह्य सुंदरता मायने नहीं रखती।
कोई यदि सोचता है की लेखक अपने लेखन से निस्पृही रह सकता है तो वह गलत ही तो है.. क्योंकि लेखक की सर्वप्रथम कामना या स्पृहा यही रहती है की कोई उसे पढ़े। प्रतिभाव वगैरह तो बाद की बात है। कई बार मैं एक स्पंदन अनुभव करता हूँ अपने भीतर एक एकांत की कामना का। और मैं रह भी सकता हूँ अकेला। लेकिन यह इच्छा भी कदाचित क्षणभंगुर ही होती है। अकेलेपन की प्राप्ति होती है, कुछ दिन बड़ा ही सुकून महसूस होता है। वही गाने दिमाग में बजते है, की "मैं चाहे यह करूँ, मैं चाहे वो करूँ, मेरी मर्जी.." लेकिन अकेलापन स्वयं भी अकेला नहीं आता। वह अनिश्चितता को साथ लेकर चलता है। कितना अजीब है न, अकेलापन और अनिश्चितता साथ चलते है। अनिश्चितता के मायने में बहुत कुछ सम्मिलत हो जाता है, सोने के समय पर जागना, खाने के समय पर नहाना, आराम करने के समय पर बाजार में सैर करना.. बिलकुल ही अनिश्चितता। धीरे धीरे यह प्रारम्भ हुआ बदलाव खलने लगता है। और जो मन एकांत या अकेलापन चाहता था वही किसी से बाते करने को प्रेरित करता है।
युद्धकी प्रकृति कभी जाती नहीं, जब मानव को कोई भी न मिले लड़ने को तो वह अपने आप से भी लड़ सकता है। और अपने आप से लड़कर जीता होगा उसने HYUNDAI का IPO नहीं लिया होगा..! अच्छे वाले टूटे है.. बच तो मैं भी गया हूँ, वैसे बच तो क्या ही गया हूँ, मुझे ज्यादातर IPO लगते ही नहीं.. वही भाग्यदोष..! हम दोषारोपण करने मैं खूब माहिर है। इस कारण से यह हुआ, और उस कारण से वह। क्योंकि हम लोग कुछ अच्छा हो तब भी भाग्य या भगवन को सौंपते है, बुरा हो तब भी। स्वयं पर भार रखते ही नहीं। नया मकान लिया, "भाई, ईश्वरकृपा थी तो ले सका, वरना महंगाई कितनी है।" कोई गुजर गया, "ईश्वर के आगे किसकी चलती है।" जो भी हो.. हम लोग इस एक जगह तो निस्पृहता अच्छे से उपयोग में लेते है।
कुछ लोग हमारे मन का एक हिस्सा कभी छोड़ते नहीं, बड़े स्वार्थी होते है वे। स्वार्थी तो हम भी ठहरे, जो उन्हें अपने मन से निकालते भी नहीं। और वैसे भी, मन का काम है उलझाते रखना, और हम मनानन्द में मस्त रहते है। अच्छा ! विचित्रता की पराकाष्टा तो यहाँ है की हम कई बार हमे रोज ही मिलने वालो के नाम या बैंकिंग आईडी के पासवर्ड तक भूल जाते है पर वो एक चेहरा, एक नाम, एक व्यक्तित्व, एक आभा, एक सुंदरता, एक चाल, एक छटा, एक वो पल, एक बात या अनकही बात, एक मुलाकात, एक दृश्य... कभी नहीं भूलते। न भूल पाते है। अगर कभी भूलने की कोशिश भी की हो तब भी किसी के कामयाबी के किस्से सुने नहीं।
इंस्टा पर एक लाइन पढ़ी.. "बेवफाई पर लिखी गई कविता शिष्ट भाषा में गाली मात्र है।" पंक्ति सुनने में अच्छी है पर एक असामंजस्य खड़ी कर रही है। अब तार्किक अर्थ निकालूँ तब तो दुनिया के बड़े बड़े कवि गालीबाज निकले इनके हिसाब से तो। सुनना आसान है, पर समझना मुश्किल। किसी ने अपनी हृदयभग्नता पर कोई काव्य लिखा वह गाली हुआ? मतलब कुछ भी? भाईसाहब कल को आप कहेंगे की विरहगीत तो हर्षपूर्ण होने चाहिए। देखो कुर्सी को CHAIR कहने से उस पर गरबा नहीं खेल सकते। अब जैसा यह कुर्सी वाला वाक्य लिखा वैसे ही आपने हृदयभग्नि कवि को गालीबाज कहा है। अच्छा है मैं विचारक या बुद्धिवादी नहीं हूँ। मैं मुर्ख और कायर तक सिमित रहूं यही श्रेष्ठ है।
आज बहुत ही उलूलजुलूल बाते लिख दी, है न ? चलो फिर इसे यहीं समापन कर देते है, खामखां कोई और विचारक हत्थे चढ़ जाएगा।