त्याग को सदा से हमारे समाज ने खूब सराहा है... || Our society has always appreciated sacrifice.

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कामना स्वातंत्र्य की करते हुए,
सो गया वह लिपटकर आलस्य से,
स्वप्न में फिरता रहा सारी इला,
जागते, जंजीर से जकड़ा मिला,
छेनी पड़ी थी पास उसके ही सही,
फिर भी जुटा पाया जरा साहस नहीं,
कैद में रहना उसे अब आ गया,
छाया शशि मासांत का अब भा गया,
पूर्णाहुति के कदम को भरते हुए,
दे 'अनंता' हव्य तू स्मरते हुए,
कि कामना स्वातंत्र्य की करते हुए। 
- अनंत (१९/१०/२०२४, १३:३५)

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प्रियंवदा ! आज दिनभर खूब विचार आए, खूब विषय भी मिले, लेकिन धन्य हो मेरी यादशक्ति.. अभी जब लिखने का समय मिला है और लिखने बैठा ही हूँ तो दिमाग खाली... कोई ना, फिर आज दिनभर हुआ क्या यह लिखू और क्या पता कुछ याद आ भी जाए..! तो सुबह वही रूटीन, ९ बजे घर से निकला, ऑफिस के लिए वाया दुकान का स्टॉप। शनिवार है, काम की कमी तो रहती नहीं, कब दोपहर हुई पता नहीं। दोपहर को किसी और के भी बिल्स बनाने थे, वहां पहुंचा। तो सवेरे वाले लेख के कारण मन में चल रही पंक्तियों तो थोड़ा और घसीट के एक छोटी सी तुकबंद कविता लिखी। दोपहर में भोजन तो अपन करते नहीं, 
तो खाली टाइम,
एक ही काम, 
रगड़े जाओ इंस्टाग्राम..!!

३ से ६ तो कब निकले है पता ही नहीं। फिर भी बिच बिच के खाली टाइम में फिर वही एक ही काम..! खेर, अभी पौने आठ बज रहे है.. यह सब कचरा-कबाड़ा लिख दिया पर वे विषय याद न आए मतलब न ही आए। छोडो उन्हें, अच्छा मैं काम करते करते कानो में ब्लूटूथ लगाए रखता हूँ, और फोन में किसी न किसी को सुनता रहता हूँ। इंस्टा में कुछ रील्स के व्यू बढ़ाने में मेरा योगदान बहुत भारी रहा है। क्योंकि काम करते करते बारबार स्वाइप अप नहीं कर सकते। इस लिए ही यूटुब ज्यादा सुनता हूँ। कोई पॉडकास्ट हो गया, या फिर लल्लनटॉप का कोई ऐतिहासिक तारीख, या फिर राजवीरसिंह का कोई लेक्चर, या आरजे वशिष्ठ का लफ्ज़ो के मोती, या फिर प्रशांत धवन का वर्ल्ड अफेर्स। यह प्रशांत धवन का तो मैंने एक भी विडिओ कभी भी स्किप नहीं किया होगा। बिच में ओशो की लत लगी थी, पर वो क्षणिक थी। मैं थोड़ा आँखों देखी कानो सुनी वाला हूँ, और जल्दी से किसी पर भी भरोसा भी नहीं करता शायद इसी कारण ओशो की बाते मेरे सर के ऊपर से चली जाती। वो दार्शनिक बाते वैसे भी मुझे थोड़ा विचलित कर जाती है क्योंकि मुझे फिर उन बातो को आचरण में लाने की खाज उठती है, अब कहीं ओशो को ज्यादा सुन लूँ और घरबार छोड़ दूँ तो? नहीं छोड़ सकता संपत्ति का लालच मुझ में भी है।

वो पुरुषपने वाले लेख के पश्चात श्री स्वघोषित लेखिका जी ने पुनः एक बार नाक काटी.. "इतने लम्बे लेख में कहीं यह बात को लिखी ही नहीं की पुरुष को भी संकोच होता है।" बात तो सही थी, मुद्दा तो वाकई भुला गया था। लेकिन वही मैं भी तो पुरुष हूँ, हार कैसे मानता? तो मैंने बहाना मारा कि "संकोच तो स्त्री पुरुष दोनों को ही होता है, और समानरूप मात्रा में होता है।" हालाँकि यह अर्धसत्य ही था। जब स्त्री से संवाद या संपर्क की बात आती है तो पुरुष में संकोच का भाव वास्तव में ज्यादा रहता है। एक उम्र का प्रभाव रहता है जो विजातीय आकर्षण का शिकार बनाता है। कोई भी इससे बचता नही है। मैं भी हुआ था, लेकिन सिवा निराशा कुछ भी हांसिल न हुआ। लोग होते है जो किसी एक को पसंद करते है, उनके पीछे अपना श्रम लगाते है, घूरते रहना - जिसे लाइन मारना कहा जाता था, फिर चक्कर काटना, और इन सब श्रमो के पश्चात बात बनी तो ठीक वरना दिलजले बनकर घूमते है.. मुझे एक साथ दो लड़कियों पर आकर्षण उपजा.. अब तो क्रश कहा जाता है.. और हमारे लिए क्रश का शब्दार्थ सिगरेट की ब्रांड मात्र हुआ करती थी। विचित्र लग सकता है क्योंकि कोई छडेचौक अपनी पसंदगी की संख्या जाहिर करता नही है। लेकिन यूँ समझो की लड़को के लिए तो वास्तव में हर तीसरी लडकी पर क्रश होना स्वाभाविक है। एक तो मेरे कॉलेज में थी, जिस पर मैं जमा पागल था। बस देखा करता, कॉलेज आते समय, कॉलेज के छूटते समय, और कॉलेज की कैंटीन में बायीं और पहले टेबल से। फिर हम लड़के सपने खूब जल्दी देखने लगते है.. की तुम चाय बनाओगी, मैं पिऊंगा, और वह डायलॉग मारूंगा की "चाय इतनी मीठी इसी लिए है कि तुम्हारे हाथों से बनी है.." (यार! यह लिखते समय मेरी खुद की ही हंसी नही छूट रही कि मैंने क्या क्या पागलपन करे है..) फिर भी, उस लड़की से कभी भी आमना-सामना नही हो पाया। क्योंकि अपन हुए थे detain.. fail समझ लो.. वह भी अधिक-छुट्टियों के कारण..! वैसे डिटेन भी बहाना ही लगता है आज तो मुझे, वास्तव में तो साहस न था की उस लड़की से जाकर बात कैसे करूँ? न ही कोई फीमेल फ्रेंड थी जो मदद भी कर दे.. क्योंकि हमारा अनुशाशन प्रिय स्कूल के पश्चात सीधे ही कॉलेज लाइफ से पाला पड़ गया। स्कूल में तो अनुशासन के नाम पर लड़के - लड़की सब अलग बैठना, और ऊपर से हमारी RSS की स्कूल्स में तो लड़की के साथ बैठना भी शर्म की श्रेणी में माना जाता था। तो बचपन से ही लडकी से बात कैसे की जाए वही पता नही था। 

एक नियम बन गया था, रातभर अगर जागकर सवेरे छह बजे सोया हूँ तब भी सवेरे नौ बजे मैं तैयार होकर कॉलेज के गेट पर खड़ा रहता था। जब वह आती तो साथ साथ कॉलेज के क्लास तक चलने का। मैं तो डिटेन था, तो क्लास के भीतर जा नही सकता था, वैसे भी फेकल्टी अलग थी हमारी, मैं कॉम्प्यूटर में था, वह आई.टी. में..! फिर कुछ देर निंद्रा की कसर पूरी करने की। दोपहर को ब्रेक के समय फिर से एकदम टिकडी-टी तैयार होकर केंटीन में पहुंच जाने का, बायीं और फर्स्ट टेबल पर बैठे लोग जगह छोड़ देते, रिज़र्व था.. लड़कपन का। वह भी केंटीन में आया ही करती। आंखे चार होती ही थी। केंटीन में काम करता लड़का दो चाय दिया करता.. और दोनो ही हमेशा मेने ही पी..!!! संकोच ही तो था, जो मुझे उसके पास ही नही जाने देता था, या डर था की दूसरे लड़के जो इतना मान-सम्मान रखते है उनकी नजरो में क्या इज्जत रह जाएगी.. क्योंकि यह व्यक्त करने का साहस करना भी हमारे समय मे बहुत बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी.. अब जहां दो टूक बात करनी भी बड़ी बात माना जाता हो वहां रिजेक्ट होने की बात को तो इज्जत आबरू से जोड़ ली जाती थी.. तो यह डर भी बड़ा ही था कि असफलता हांसिल हुई तो कहीं के न रहेंगे.. यह संकोच नही तो और क्या है। ऊपर से प्रतिदिन कई लड़को के प्रस्ताव ठोकर खाते दिखते थे.. तो बची खुची हिम्मत भी पस्त हो जाती। 

फिर आखिरकार एक एक्सट्रोवर्ट मित्र की सहायता ली गई। उसने जाकर मेरा प्रेम संदेश अपने मुखसे कहा, उसके मुख का संदेश अपने कानों से सुना, और मेरे पास आकर धड़ल्ले से मुंह खोलकर कहा, "मना कर गई बे.."

फिर भी मेरा दिल टूटा नही। स्पेरव्हील था न, ऊपर बताया था न की मुझे एक ही समय दो लड़कियां पसंद आई थी.. लेकिन वह बात फिर कभी..

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प्रियंवदा ! त्याग को सदा से हमारे समाज ने खूब सराहा है। चाहे भरत के लिए किया हुआ राम का त्याग, राम के लिए लक्ष्मण की त्यागी उर्मिला, या खड़ाऊ के लिए भरत का त्यागा अयोध्या का राजसिंहासन.. जिसने भी त्याग किया हमारे समाज ने उसे खूब बखाना। हमने तो प्राप्तकर्ता से अधिक दाता को सराहा है। दो भाई ओ में किसी ने राजगद्दी ली, और किसी ने संसार त्याग कर सन्यास लिया तो हमने उस सन्यासी को ज्यादा बखाना.. जबकि जिसने राज्य सम्हाला, अर्थव्यस्था बनाए रखी, रक्षण किया, जीवनस्तर को ऊर्ध्व ले गया उसे उतना महत्व नही दिया, क्यों ? हम पर आक्रमण हुए, हमारी आस्था को क्षतिग्रस्त किया गया। फिर उन आक्रांताओं के सामने कुछ मुट्ठीभर लोगो ने भी बलिदान दिया है तो हमने उन्हें ही अपना आदर्श माना है। क्यों ? इस अमूल्य जीवन का त्याग कर पाना शायद सबसे बड़ा साहस है। त्याग का मूल्य सदैव से हम समझते आए है। भोग, विलास, जीवन भव्यता से जीने की शैली के बदले हमने सन्यासी भावरहित या क्रोधी दुर्वासा या ज्वाला समान जमदग्निपुत्र राम को सबसे अधिक महत्व दिया है। क्योंकि उन्होंने सामान्य से इस जीवन का त्याग किया था। त्याग का मूल्य शायद वही जान पाते है जिन्होंने वास्तव में किया हो।

जैसे किसी परिवार को बनाने के लिए एक कन्या विवाह के बाद अपने मातपिता को त्यागती है। जैसे एक लड़के ने देखे स्वप्न वह पुरुष होने के पश्चात अपने परिवार के लिए त्याग देता है। हम माँ को ज्यादा बखानते है त्याग के लिए कि माँ खुद आधी रोटी खाकर अपने बच्चों का पेट पूरा भरती है, पर उस पिता की बनियान के छेद हम नजरअंदाज कर जाते है, या फिर पिता को घर पर दाढ़ी बनाता देख यह नही सोचते कि इन्हें सलून में जाने का शौक क्यो नही होता? पूछना कभी।

पिता से संवाद के मामले में भी लड़को का संकोच सर्वोच्च स्तर पर रहता है। जिसे हम अक्सर मेल ईगो के नाम पर खपा लेते है, वास्तव में मुझे भी कारणभूत तो मेल ईगो ही लगता है। लेकिन यदि दृष्टिकोण बदला जाए तो दोनों को ही संकोच होता है। पिता कुछ यूँ असमंजस में रहता है कि वह अपने पुत्र की नजरों में आदर्श बना रहे, पुत्र को यह संकोच आड़े आता है कि पिता का वात्सल्य उस पर बना रहे। लेकिन वे दोनों ही व्यक्त नही करते। व्यक्त करते भी है तो वह संकेत या सूचक मात्र सा दिखता है। वास्तव में, विचारणीय है कि माँ बेटी जितना सहज और सरल संबंध पिता पुत्र का क्यो नहीं है? अब तो नई जनरेशन के पिता तो अलग ही ब्रांड है पूरी.. जो कुछ अधिक ही वात्सल्यता दिखाते दिखते है मुझे। कठोरता का लगता है मानो त्याग कर चुके है.. पिता भी माँ की तरह पुचकारते बात करते है..! बड़ी अचरज अनुभव होती है।

प्रियंवदा ! त्याग और भी होते है। पुरुष अपनी स्त्री के लिए जो करता है। अपने स्वप्नों का त्याग, अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए स्वयं के हर्ष का त्याग, और भी है। लेकिन फिर वह एकपक्षी सा दिखेगा क्योंकि त्याग किसी एक को निर्धारित नही है। दोनो युगल अपने अपने त्याग करने के पश्चात ही एक हो पाते है, यदि किसी ने अपने त्याग को किसी लोभवश नही किया तो वे युगल उभय नही द्वय ही रहेंगे।

ठीक है यार, आज कुछ ज्यादा ही बाते हो गई..
पुनः भेंट करेंगे, नए पन्ने पर कुछ नएपन के साथ..!!

|| अस्तु ||


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