मैं किसी परिघ के भीतर फंसा हूँ जहाँ से बाहर आना असम्भव सा है... || I am trapped inside a circle from which it is impossible to come out..

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प्रियंवदा ! कई बार मैं कुछ सोचता हूं, स्वयं के उपचारर्थे, अपनी ही सीमाओं को लांघने के विषय मे, तो पाता हूँ कि मैं किसी परिघ के भीतर फंसा हूँ जहाँ से बाहर आना असम्भव सा है। फिर कभी कभी यह सीमित परिघ ही शत्रु सा उठ खड़ा होता है। मैं लड़ता हूँ, अंतिम आश तक। पर फिर मेरा गांडीव कांप उठता है, उसकी प्रत्यंचा मेरे हाथ से छूटने लगती है, मेरी विद्या, मेरा अर्जित किया हुआ सर्वस्व निःसहाय भूमि पर रेंगता दृष्टिगोचर होता है।


ऐसा माना जाता है की प्रत्येक कर्म करने की एक उम्र निश्चित होती है। मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि मैं पढता हूँ, बहुत कुछ पढता हूँ, जिस विषय से मेरा कोई सम्बन्ध ही नहीं है मैं वह भी पढता हूँ। खेर, कई बार हम लोग किसी सम्बन्ध में बुरी तरह फंस जाते है। लेकिन वह संबंध टूटना असम्भव होता है। उदाहरण के लिए यूँ समझो की किसी बाप-बेटे की बनती नहीं। दोनों के बिच स्नेह नहीं है, पर दुनिया की नजरो पर फिर भी पर्दा रखना पड़ता है की हाँ ! हम दोनों एक है। बाप-बेटे के रिश्ते का विच्छेद संभव नहीं। अगर हुआ भी तो समाज दोनों को कोसता है, बाप को भी, बेटे को भी। क्योंकि मानव समाज दो-मुंहे साप सा है। दोनों और की बाते बनाता है।

यह तो दृष्टांत था। जैसे कोई रिलेशनशिप में है। गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड है। अगर उनकी आपस में नहीं बनी, किसी दिन झगड़ा हुआ, या कोई छोटा सा कारण भी कारगर होकर खटराग पैदा कर देता है तो दोनों अलग होने में देर नहीं लगाते पर यही बात विवाहित के मध्य हुई तो? फिर अलग होना तो बहुत दूर है। अनचाहा बोझा लिए चलना पड़ेगा वह अलग। क्योंकि मन तो मिले नहीं, दोनों अगर किसी बात पर समाधान कर के भी इस संबंध बनाए रखते है तब भी वह एक छलावा होगा। स्वयं से ही किया हुआ छल। स्वयं की इच्छा विरुद्ध वर्तन करने का छल, एक दूसरे के प्रति सहानुभति दर्शाने का छल, असत्य की नींव पर बना भवन दिखेगा तो भव्य लेकिन होगा तो वह लाक्षागृह ही। यहां फिर भाग्य के भरोसे रहना पड़ता है कि भाग्य ही कुछ सम्हाल ले। जैसे अब उस युगल को एक दूसरे से स्वतंत्रता की कामना तो होती है पर मिल नही सकती क्योंकि फिर से वही बात आ जाती है कि हमारे समाजो ने कुछ नियम बना रखे है जो बेड़िया बन चुके है.. जैसे अविवाहित नही रहना, समाज/समुदाय के हितों से विपरीत नही चलना वगेरह वगेरह.. 

स्वतंत्रता की आशा किसे नही होती? करोड़ो भारतीय उस दिन गोरों की परतंत्रता से तो मुक्त हो गए, पर सामाजिक नियमो के आधीन होकर आज भी परतंत्र जीवनयापन कर ही रहे है। कभी कभी तो हमें विचारों से भी तो स्वतंत्रता चाहिए होती है। कई विचार ऐसे होते है जो मन मे घर कर जाते है, अनचाहे संबंध स्थापित करने की, जिसे 'पाप' मन जाता हो, मन उस कार्य को करने को भी प्रेरित करता है। कई बार हम उत्सुकतावश परतंत्र होकर कुछ निर्णय ले लेते है और स्वातंत्र्य का बलिदान देकर भी उस निरर्थकता को प्राप्त करते है.. (थोड़ा विचित्र लिखा है, है न? और बहुत भारी भारी शब्दप्रयोग भी हुए है, वजन कम करते है चलो..) 

एक लड़का था, बड़ा ही आलसी। प्रेम प्रसंगों में भी आलस.. हालांकि आलस के कारण ही प्रेम प्रसंग हुए नही। जब कॉलेजमे दूसरे लड़के फ्री नाईटकोलिंग का लाभ उठा रहे थे यह अपने लैपटॉप पर या तो कुछ पढ़ता करता, या गेम्स खेलता। लड़कियों से ज्यादा बातचीत हुई ही न थी उसकी, इस लिए इसे अनुभव तो था नही, की लड़की के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए, क्या बातचीत करनी चाहिए, थोड़ा इंट्रोवर्ट टाइप.. संकोच से भरा हुआ। उम्र थोड़ी बढ़ी तो मातापिता ने विवाह का प्रस्ताव रखा। शहर में पले बडे इस लड़के का विवाह गांव की लड़कीं से निश्चित हुआ। दोनो बिल्कुल उत्तर-दक्षिण विचारधारा। लड़का रूढ़िवादी, लड़कीं अद्यतन युग से कदम से कदम चलाने वाली। लड़का पुराने संस्कारो से प्रेरित, तो लड़की नए जमाने से भरी हुई। दोनो में एक ही साम्यता थी कि दोनो ही आलसी। दोनो ने एकदूसरे के लिए थोड़ा थोड़ा बदलना चाहा। लड़का थोड़ा कर्मठ हुआ, लडकी ने कुछ पुराने विचार अपनाए। खूब नाईटकोलिंग्स की, पर कहीं न कहीं विपरीत विचारधारा ओ का टकराव होता है, और दो-दो दिनों के युद्ध के पश्चात पुनः शांति-समझौते पर दस्तखत कर लेते। कुछ दिनों में फिर से किसी न् किसी बात पर मतभेद हो जाता, फिर से समाधान कर लेते। ऐसे ही एक दिन विवाह हो गया। अब लड़का ठहरा व्यवहारिक ज्ञान से अनजान, लड़की भी नए घर मे घुलने-मिलने से थोड़ा कतराए.. धीरे धीरे दोनो ही अपने असल रंग में आने लगे। लड़का अपने आलस्य में डूब गया, लडकी अपने घर के कामो को निपटाकर सर पकड़कर सो जाया करती। लड़के की माने इन दोनों का ऐसा व्यवहार देखते हुए लड़कीं को कोसा, लड़के के बाप ने अपने लड़के को कोसा। लड़के के मा-बाप ने इन दोनों के संबंध बनाए रखने के लिए खूब प्रयास किए, घर का वातावरण बदला। कुछ रूढिवादिताओ से लड़के के पिता ने छूट ली, कुछ रिवाजो से घर के भीतर लड़के की माँ ने मुक्ति ली, पर लडकी.. उसका मन अब नही लगा। लगा तो पहले ही नही था, पर वो अपने मातापिता के चढ़ाए इस झाड़ पर चढ़ी, लड़का भी अपने मातापिता के कहने पर झाड़ पर चढा। अब वे अलग भी नही हो सकते क्योंकि सामाजिक बंधनो की बेड़ियों ने उनका पैर जकड़ा है। दोष तो दोनों का दिखाई पड़ता है। लेकिन किसके दोष का भार ज्यादा निकलता है यहाँ वह पाठक तय करे।

अब मैं अपने पुरुषत्व के दृष्टिकोण से कहूं तो इस प्रकरण में ज्यादा गलती लड़के की है। जब उसे शुरुआत में ही अगर पता चल गया कि लड़की के साथ मनमुटाव बार बार हो रहे है तो उसने अपने मातापिता से बात करने की हिम्मत क्यों नही की? दूसरी बात, जब लड़के में स्वयं में ही आलस्य भरा है तो तो वह अपने कार्य किसी और से कराने की आशा कैसे कर सकता है? जब उसे लड़कियों से बात करने का भी अनुभव नही था, फिर उस अकर्मण्यता के बावजूद वह रिश्ते के लिए तैयार क्यों हुआ? जब उसके मातापिता ने कुछ बदलाव लाने चाहे तब लडकी अगर नही बदल पाई तो लड़का भी क्यों न बदला? क्या हुआ अगर लडकी के कहने पर वह अपने मातापिता से विमुख हो जाएगा तो.. लड़के ने दो जीवन बर्बाद कर लिए, बस विवाह के प्रति अपने मातापिता की उत्सुकता को सन्तोषने के लिए..!!! अच्छा, यह सारा दोषारोपण लड़के पर ही हो गया है ऐसा नजर आ रहा है, पर वास्तव मे दोष लड़के का इस लिए भी है की आज के जमाने भी यदि ऐसा होता है तो दोष पूर्णतः लड़के का है। क्योंकि आज भी कई लड़कियों की इच्छा विरुद्ध उनका विवाह किसी अनजान से कर दिया जाता है। बस इतनी छूट मिली है कि विवाह से सगाई (मंगनी/रोका) और विवाह के बीच कुछ साल-दो साल का समय रहता है जिसमे लड़का-लड़की एक दूसरे को समझ पाए, अगर मनमुटाव है तो अभी से सगाई को तोड़कर अलग हो जाए.. लेकिन यही समाज टूटी हुई सगाई वाले रिश्तों से भी कतराता है.. समाजो को सब्जी की तरह लड़का या लड़कीं भी फ्रेश चाहिए। मैंने कहा था, समाज दो मुंहे सांप सा है। 

खेर, कई ऐसी रूढ़ियाँ-परंपरा है जिनका निर्माण हुआ था आवश्यकता के पायदान पर। लेकिन आज वह क्रूरता का पर्याय है। समयानुसार बदले जीवन मे हम कई सारे फिजूल के रिवाजो को साथ लिए बढ़ रहे है। समय बदल रहा है, लेकिन मानसिकता? नही बदल पा रही। हमने कुछ क्रूर नीतियां अपना ली है, हम भक्ति-उपासना के नाम पर पशुबलि आज भी दे रहे है, और सामाजिक परंपराओं के नाम पर नरबलि..!

|| अस्तु ||


(लो जी, स्वघोषित लेखिका को भी पढ़ो.. Click Here)

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