चलो पत्र लिखते है, क्योंकि जो मैंने सोच रखा था, ठीक ऐसा ही कुछ लिखा जा चुका है... || Let's write a letter, because something similar to what I was thinking has already been written..

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शरदपूर्णिमा की रात्रि.. लेकिन चंद्र तो पता नही उसकी सत्ताईस रानी में से किसकी गोद मे सोया है.. पूरा अवकाश चंद्रविहीन दिख रहा है..! गर्मी की तो बात ही जाने दो.. बैठे बैठे ही शरीर भीग जाता है - उमस जैसा। यमदूत समान दो बड़े बड़े स्पीकर्स बाहर निकाले, फिर एम्पलीफायर भी.. साउंडसिस्टम चेक किया, सब बढ़िया चल रहा था..! लेकिन अवकाश में पूर्णिमा का चंद्र.. वो तो बादलो की रेल के पीछे ही छिपा रहा। कुछ देर तो गरबा खेला, फिर गर्मी के प्रभाव से मैं तो बैठ गया। तो सोचा प्रियंवदा ! तुम से बाते कर ली जाए।

(दिनांक : १७/१०/२०२४, २३:११)



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चलो पत्र लिखते है, क्योंकि जो मैंने सोच रखा था, ठीक ऐसा ही कुछ लिखा जा चुका है।


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कच्छ, गुजरात।

१८/१०/२०२४


स्नेही प्रियंवदा !


तुम्हारा लेख मिला, उससे थोड़ा भिन्न प्रतिभाव लिख रहा हूँ। 


प्रभाव क्या होता है पता है? मैंने कभी इस तरह का लेखन किया ही नही था। मेरी शैली सिरे से ही भिन्न हुआ करती थी। मैं जब पद्य से गद्य में आया, तो मैं कल्पनाएं किया करता था, मनमौजी नाम का एक व्यक्ति, जो गांव का रहवासी है। खेती तो नही करता पर खेत मे चारपाई लगाकर बैठता है। उसके कुछ मित्र है जिनमे गजा/गजो है जो साहित्यरसिक है, प्रीतम है जो बस अपनी "प्रेयसी'ओ' " में उलझा रहता है, एक मनुष्यद्वेषी श्वान है जिसे वह डाघीया कहकर बुलाता है। YQ मोटाभाई की बात का बतंगड़ करता है, और बेकरीवाल जैसो की वह टांगे खींचा करता था। वो अपने मित्रों के साथ बैठता और दूर-सुदूर देशों की भी बाते करता, कुछ आसपास घटित हो रहे प्रसंगों को मित्रवरतुल के साथ बैठकर संवाद में ले आता। धीरे धीरे मैंने हिंदी पढ़ना शुरू किया, तो जिन्हें पढ़ता था, उन सारो की लेखनी मानो हृदयभग्नता की ज्वाला से उत्पन्न हुई हो.. प्रभाव मुझपर भी पड़ा। हास्य-व्यंग्य और बिल्कुल ही सरल शैली से मैं गंभीरता की और मुड़ गया, और नाम भी बदल गया, मनमौजी था वह दिलावरसिंह हो गया।


तुम्हारी लेखनी की मेरी दृष्टि से विशिष्टता क्या है पता है? "नयापन".. देखो साम्यता आ जाए तो आ जाए.. लेकिन २५/११/२०२२ को शुरू हुआ यह चर्चाओं का दौर आज पर्यंत जारी है। अच्छा है, मैं तुमसे वाकई प्रभावित हूँ। जैसे तुम्हे कोई आदत हुई हो, वैसे ही मुझे भी तो तुम्हे पढ़ने की आदत लगी है। बीचमें तो नित्यक्रम ही बन गया था, हम लगातार लिख रहे थे, और सतत पढ़ रहे थे, चर्चा कर रहे थे, सुझाव दे रहे थे, तुमने विषय दिया, मैंने अनुसरण किया। आवश्यकतानुसार हमने औपचारिकता बनाए रखी है..


अच्छा, मुझे बताना यह था कि कल की चर्चा के निष्कर्ष स्वरूप मुद्दा निकल आया वह था 'पुरुषपना'। पिछले मेरे लेखनों में कई बार अनुच्छेदों के बीच कभी कभी इस पुरुषपने को लिख दिया करता था पर आज इसी का ही आलेखन करना है। तुम्हारे मिले पत्र में तुमने बखूबी सही बाते बताई है। जैसे स्त्री पुरुषो की शारीरिक कद-काठी की भिन्नता है, वैसी ही भिन्नता मानसिकता की भी है। परिपक्वता या जिसे हम maturity भी कहते है वह स्त्रीलिंग में बहुत जल्दी आ जाती है, जबकि पुरुषो में, बचपना शायद कभी नहीं छूटता। बालिका में एक बचपन से ही कोमलता का, सौम्यता का भाव निर्माण होता है, और पुरुषो में ? नरी कठोरता। ऐसा भेदभाव क्यों ? पुरुषो को ही लड़ना क्यों है ? जिम्मेदारियों का भार पुरुषो पर ही क्यों ? क्या स्त्री से कदकाठी में बड़ा है इसी लिए ? यह बात तो सिद्ध है की पुरुष स्त्री से अधिक शारीरिक बल और मेहनत का कार्य कर सकता है। इसी कारणवश उसमे जन्मे कठोरता के भाव का संतुलन बनाए रखने के लिए ही स्त्री में सौम्यता का भाव जन्माया जाता है। जैसे कोई पुरुष के दिनभर अपने कार्यक्षेत्र में शारीरक श्रम, या ऑफिस में मानसिक श्रम के पश्चात जब भी वह अपनी माता या प्रेयसी की गोद में सर रखता है, वह अनुभव करता है की परिश्रम से जन्मी सारी व्याधि, पीड़ा पर एक सौम्य हाथ फिरा है, और वह एक परम शांति का अनुभव कर रहा है। जैसे सदैव कहा जाता है, पुरुष रोता नहीं। क्योंकि रोता हुआ पुरुष हमे कुरूप दीखता है। रोते या कल्पांत करते पुरुष को कोई देखना भी नहीं चाहता। शायद इसी कारन से मृत्यु के शोक पर लौकिक करता पुरुष अपने सर तथा मुख पर कपडा रखकर रोता है। फिर भी हमारे विचारको ने लिखा है की किसी रोते हुए पुरुष की सुंदरता देखनी हो तो उसे कन्याविदाय पर देखिए। पुरुषो की कमजोरी क्या है पता है ? वे किसी के आगे अपना हृदय पूर्णतः खाली नहीं करते। यह थोड़ा गंभीर हो गया है न..


प्रियंवदा ! यह जो लड़कपन होता है न, वह कभी नहीं जाता। तुम देखना, लड़के सोसियल मिडिया पर किसी भी लड़की को फॉलो कर लेते है। उनको मतलब नहीं होता है की उनसे बात हो, वह जवाब देगी, नहीं देगी। फिर भी यह लगे रहते है, बालिश हरकत के अलावा कुछ नहीं है यह। एक बात और, अटेंशन की भूख भी खूब होती है हमे। तुमने दिनभर क्या किया वह हम बाद में सुनेंगे पर मैंने आज यह पराक्रम करके दिखाया वह मैं तुम्हे तुरंत ही बताऊंगा। अच्छा, मैंने अपना पराक्रम तुम्हे बताया वहां बात ख़त्म नहीं होती, तुम्हारी ओर से उस पराक्रम के विषय में उचित टिप्पणी की अपेक्षा भी बनी रहती है। यदि तुमने भावपूर्वक उस पराक्रम का प्रतिभाव दिया, तब तो ठीक है, वर्ना आगे से मैं जो तुम्हे बताता हूँ उस बात में बात की कमी होने लगेगी। भरा हुआ हृदय और भरने लगेगा। और वह भरा हुआ भाव जिस भी क्षेत्र में कूदेगा उसका परिबल बन जाता है उसके लिए। खेर, मैं कोशिस कर रहा था बात को थोड़ा हल्का करने की और यह पत्र है की लम्बा खींचा ही जा रहा है।


साहित्यिक बातो में हम पढ़ते है की पुरुष के हाथ की कठोर हथेलियाँ स्त्री के कोमल कर को अपने हाथ में ऐसे समाहित कर लेते है जैसे छिप में मोती। और आलिंगनबद्ध युगल में कठोरता ने कोमलता को अंगीकार कर लिया, वगैरह वगैरह.. क्या वास्तविकता है ऐसी कुछ? पुरुष की हथेलियां वास्तव में श्रम के कारण खुरदुरी है? फिर स्त्री भी तो बर्तन को मुंह दिखाई पड़े उतना घिसती है, हाथो से ही घर की दीवारों पर गारा लगाती थी तो क्या स्त्री की हथेली फिर भी कोमल ही बनी रही होगी? शायद हाँ ! क्योंकि पहले ही कहा वही बात है की पुरुषत्व अधूरा है, स्त्री तत्व के बिना, शिवत्व अधूरा है शक्ति के बिना। तभी तो शंकराचार्य ने भी स्वीकार्य किया शक्ति का सामर्थ्य। स्त्री का हस्त वरद ही सुहाता है, क्योंकि पुरुषत्व की कठोरता और क्रूरता पर स्त्री का वरद हस्त सर्वस्याति हर लेता है.. पुरुष ने स्वीकारा है कि स्त्री की हथेली कोमल है.. बस यह स्वीकार्यता का भाव ही उस श्रमिक हथेली में कोमलता का संचार करता है।


पुरुषो में स्वामित्व का भाव भी खूब होता है, क्योंकि उसे बचपन से यही सिखाया जाता है कि यह तेरा है, तुझे सम्हालना है, तुझे इसमें और बढ़ोतरी करनी है, यदि तू इसे गंवा देता है तो तुझे अपने सामर्थ्य से इससे भी विशिष्ट कुछ हांसिल करना होगा। तभी तो कोई कालिदास कालिदास बना, और तुलसीदास भी..! कालिदास और तुलसीदास के पुरुषत्व पर प्रहार हुआ था, स्त्री के द्वारा, उनके स्वामित्व भाव को चोट पड़ी तब जाकर समाजोपयोगी साहित्य इस संसार ने प्राप्त किया है। थोड़ा और आगे बढे तो पुरुषत्व की एक और कमजोरी है वह है स्त्रीत्व के आगे सम्पूर्ण समर्पण कर देना। जब एक ब्रह्मर्षि पद के लिए राजा विश्वामित्र सर्वत्र का त्याग करता है तब भी मेनका के आगे अपनी सर्व शक्तिओ को समर्पित कर देता है। जैसे काली के आगे शंकर अपनी सर्व सिद्धिओ को समर्पित करते है। पुरुषत्व को पूर्ण करने के लिए स्त्रीतत्व आवश्यक ही है, इसी लिए सम्बन्ध बने, माता, बहन, भार्या...!


अरे प्रियंवदा, तुम्हे सम्बोधित इस पत्र को पता नहीं मैं कहाँ ले जा चुका हूँ ! अब तो पता नहीं यह पत्र की श्रेणी में रहा भी है या नहीं.. क्योंकि पत्रलेखन की एक निश्चित सीमा है जिसे मैं यहाँ अवश्य ही पार कर चूका हूँ.. कोई नहीं इसे पोस्टकार्ड के बदले दो A4 पेपर पर लिखा हुआ समझ लेना.. बाकी लिखा तो ऐसा ही जाएगा.. अमर्यादित समुद्र सा और खारा भी..!!! आशा बस यही की इसका प्रतिभाव आप जल्द से जल्द दे...


दर्शनाभिलाषी,

दिलावरसिंह


|| अस्तु ||

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