अपेक्षा रखने से हम कभी चूकते नहीं है। चाहे वह अपेक्षा की सम्भावना असम्भव ही क्यों न हो..! ऐसा ही होता है मैत्री के सम्बन्ध में भी। दो-तीन दिन से प्रीतम नाराज चल रहा है, दशेरा की रात को वो बैठक का सामान ले आया। अब मैं रात का भोजन खा-पी चूका था, तो अपनने दूर से प्रणाम कर लिए। तो गधा जिद्द पर उत्तर आया की नहीं, मैं स्पेशियलि यह माल लाया हूँ, लेना ही पड़ेगा.. भले ही एक ग्लास ले..! बस भरपेट के ऊपर यह चीज दो बून्द भी न चले.. पेट है, गटर थोड़ी है। अब भाई जिद्द पर अड़ा हुआ, इधर मैं परेशान, की एक बार बैठ गया तो खड़ा न हो पाउँगा। फिर भी भाई का मान रखने के लिए दोराभर गिलास भर लिया। इस तरफ प्रीतम पहले ही कहीं लगाकर आया था, मेरे साथ और दो लगा लिए। अच्छा, बैठकों में ऐसा माना जाता है की कभी भी एक गिलास नहीं पीना, एक गिलास के बाद दूसरा तो लेना ही पड़ता है, वरना झगड़ा हो जाता है। मैं नहीं मानता था। मैंने मुंह गीलाकर के गिलास फेंक दिया। इधर भाई झूमने लगा, जुबान लड़खड़ाने लगी, टांगे डोलने लगी। एक ही वाक्य में कई बार "तू मेरा भाई है" आने लगा। अपन जमा सूफी, मुझे अच्छा अनुभव है ऐसे लोगो को सम्हालने का। तो जैसे तैसे समझाबुझाकर उसे घर भेज दिया, रात के साढ़े-बारह को उसका फोन आया, "मैं घर पहुँच गया।" हालाँकि मैंने बारह-पंद्रह पर ही उससे विदा ली थी। खेर, दूसरे दिन पूरा उसने फोन ही नहीं उठाया, ऊपर से रात को उसने नशे नशे में मुझे बहुत खरीखोटी भी सुनाई थी। लेकिन दोस्त है, दोस्ती का क्या मनदुख?
अब कल कुछ अन्य व्यस्तताओं के कारण मैंने उसके फोन नहीं उठाए तो गधा बुरा मान गया। आज मेरे कॉल्स नहीं उठा रहा, ऊपर से साले ने धमकी दे डाली, "चौदह वर्ष की मित्रता खत्म.." इसे कहते है अपेक्षा का भंग होना। जब मैं उसे तिस-चालिश फोन करता हूँ, वो लगातार सारे कॉल्स काटता है, मुझे बुरा नहीं लगता। और एक दिन मैंने उसके कॉल्स क्या काटे साले ने दोस्ती ही ख़त्म कर दी..? मैत्री में अक्सर रूठना-मनाना चलता है, पर उसकी उम्र होती है। किशोरावस्था में यह सब चलता है, जिंदगी भर हम बच्चे नहीं रह सकते। मजाकमस्ती जिंदगीभर कर सकते है, पर रूठना-मनाना क्या होता है? ऐसे स्टोरियां चढ़ाकर तो मैंने कभी अपनी...
कई ऐसी अपेक्षाए होती है जो हम अकारण ही लोगो से लगा लेते है। या फिर उन्हें कह देते है की मेरा यह काम है, आप कर दो ना..! चाहे उसकी इच्छा हो या न हो। चाहे उसे मजबूरी में ही क्यों न करना पड़े। फिर अपेक्षा के धारा-धोरण पर उसे खरा उतरना होता है। क्यों ? अजीब जबरजस्ती है। भाई, गिनानी पड़ जाए तो फिर वो मैत्री न हुई। वो बात अलग है की मजाक के तौर पर हम लोग कई बार कह देते है की मैंने तेरे लिए यह किया था, लेकिन वह मात्र मजाक या खिल्ली उड़ाने तक ही होता है। यार ! जब तक गालियों की बौछार न हो तब तक मैत्री की परिभाषा पूर्ण नहीं होती। जब तक तेरा-मेरा नहीं होता तब तक मैत्री अधूरी है, जब तक सुबह से लेकर शाम तक में बात ही न हो पर रात को साथ में न बैठे तो मैत्री अधूरी है। जब तक एक दूसरे से बेझिझक कुछ भी माँगा न हो तब तक मैत्री अधूरी है। अरे जब तक एक ने दूसरे को उसके घर पर डाँट न खिलवाई हो तब तक मैत्री अधूरी है। किसी भी बहाने से मित्र को खर्चा नहीं कराया है तो बेशक मैत्री अधूरी है। अरे एक के काण्ड में दूसरे की सहभागिता नहीं है तो मैत्री अधूरी है। यहाँ तक तो फिर भी ठीक है, पर जब किसी मित्र की खुदने ही सेटिंग करवाने के बाद खुद ही उससे तुड़वा न दी हो तो तो वह मैत्री है ही नहीं... दुश्मन से भी बदतर व्यवहार कभी भी नहीं किया है तो उस मैत्री में संसोधन की आवश्यकता है। प्रभात के चार बजे तक तुम अपने मित्र के साथ बैठे हो और घरवालों को फ़िक्र न हो तो उस मैत्री से अच्छा क्या ही है इस दुनिया में?
तो भाई.. मेरा लिखा तू पढता तो है नहीं... तुझे प्रितमपने से फुर्सत कहाँ है? छोड़ यार...
अपेक्षा के विषय में कह रहा था, पर प्रीतमपुराण खुल गया यहां। अपेक्षा का क्या है, आकांक्षा, अभिलाषा, इच्छा, आशा, प्रतीक्षा भी, आश्रय, भरोसा, कार्य और कारण का संबंध.. एक अपेक्षा में इतना कुछ छिपा हुआ होता है। अपेक्षा भी मर्यादाविहीन है, जैसे आज मैंने किसी से कह दिया कि, "आप इतना अच्छा कविता पठन करते हो, पता नही मेरी कोई कविता आप कब सुनाएंगे..!" अब इन्होंने तो सीधी नाक ही काट ली। बोले, "पहले कोई कविता लिखो तो सही.." बात तो सही है..! मुझे अपेक्षा रखने से पहले स्वयं ही सोचना चाहिए था, जब मैंने कोई ढंग की कविता ही नही लिखी फिर भी अपेक्षा कर ली कि मेरी कविता का पठन करे। तात्पर्य की अपेक्षा किसी भी चीज की हो सकती है। चाहे असम्भव ही क्यों न हो !
अब जैसे रशिया को अपेक्षा है की वह वैश्विक सत्ता का सूत्रधार बने, अमरीका बहादुर की अपेक्षा से है वह उस सूत्रधार के स्थान से कभी हटे ही ना। चीन की अपेक्षा है की पूरी पृथ्वी पहले कभी चीन हुआ करती थी, वह दोहराया जाए। पाकिस्तान की अपेक्षा है की कोई उसे अल्लाह के नाम पर बस देता रहे। जापान की अपेक्षा है की साऊथ ऐसिया में नाटो जैसा संगठन बने। ट्रुडो की अपेक्षा है की देश गया तेल लेने अपन केनेडा की कुर्सी पर बने रहे। इजराइल की अपेक्षा है ग्रेटर इजराइल की। फ़्रांस की अपेक्षा है वह लोकतंत्र का आगेवान बना रहे। और भारत... भारत की क्या अपेक्षा है? बस इतनी सी कि सर्वे भवन्तु सुखिनः ...
खेर, अपेक्षा पर नियंत्रण होना जरुरी है, क्योंकि जब यह हावी होती है तो विनाश को समीप ले आती है। जैसे हम कई रिश्तो से अत्यधिक अपेक्षा रखते है। फिर वह अपेक्षा और अवधारणा के विपरीत हो तब लगता है की यह कहाँ फंस गए ? अपेक्षा का भंग होते ही निराशा उपजती है, निराशा से निराशावाद, निराशावाद से अकर्मण्यता, अकर्मण्यता से अधोगति... (मैं कहाँ की बात कहाँ ले जाता हूँ..) अपेक्षा से शुरू हुआ प्रकरण सर्वनाश पर आ चूका है। वो जब कवितापाठी से चर्चा हो रही थी, तब उन्होंने एक सही बात कही, "निष्काम कर्म"... इस अपेक्षा को टालना है तो निष्काम कर्म पर ही ध्यान देना होगा। निष्काम कर्म में व्यक्ति अपने कार्यो के परिणामो से अपेक्षा ही नहीं रखता। अनासक्ति होनी चाहिए। कार्य के साथ एक लगाव या जुड़ाव अनुभव नहीं होना चाहिए। कोई डॉक्टर किसी पेशंट को इंजेक्शन लगते समय लगाव अनुभव करेगा तो मांस की जगह नसों में घोल मिला देगा.. यही तो है निष्कामभाव... स्वयं के स्वार्थ को त्यागकर सर्वोपयोगी कार्य को किया जाए वह निष्काम कर्म की व्याख्या हुई। लेकिन हम करते क्या है ? परिणाम को पहले से सोचकर ही कार्य करते है। यदि उस कार्य में किसी भी कारणवश या कार्यपद्धति के कारणवश परिणाम अपेक्षा के विपरीत आया तो अकर्मण्यता तो तब भी सामने आकर खड़ी हो जाती है।
जो भी हो, मेरा काम है लिखना, मेरे साथ घटित हो रहे को एक जगह संभालकर रखना, कोई पढ़े और सराहे तो उन्हें आवकार देना, कोई सलाह-सूचन या बोधपाठ दे तो उसे ग्रहण करना। आवश्यकता लगे तो सुधरना, बाकी मेरी हिंदी का पूर्ण व्याकरण इस गूगल के कीबोर्ड पर निर्भर है.. तो उस विषय की सलाह-सूचन को सादर प्रणाम।