दिवाली की रात्रि को मैं अपने उसी सुख-दुःख के साथी ग्राउंड में बैठा था। बचपन में पटाखों का खूब शोख था, अब उतना रहा नहीं है। फिर भी कुछ स्काई-शॉट्स वगैरह फोड़-फाड़ के मैं अपने ग्राउंड में आकर बैठ गया था। चारोओर से बस पटाखों का शोर-शराबा ही चल रहा था। पूरा आसमान रंगबिरंगी स्काई-शॉट्स से सजा जा रहा था। पटाखों के धमाके से गुंजित होती प्रतिध्वनि रह रह कर जैसे फूट चुके पटाखे की ऐतिहासिक गाथा सुना रही हो। मैं जहाँ बैठा था, पता नहीं किस गधे ने एक सुतलीबम वहां फेंका, थोड़ी देर तक कान में बस सीटी ही बजती रही। चारोओर देखा, कोई दिखा नहीं, दिवाली है, किसी से गलती से इस तरफ फेंका गया होगा, सोचकर मैं अपने फोन की नोटपेड में व्यस्त हो गया। एक डिम बल्ब की स्प्लेंडर बिलकुल मेरे पास में आकर रुकी। मैंने फोन से अपना सर ऊँचा उठाया, गजा मुस्कुराता मोटरसायकल को डबल स्टेण्ड कर उतरकर मेरे पास आकर बैठा और बोला, "और कैसी चल रही है दिवाली?"
"अभी तक तो सही चल रही है, तू सुना, क्या मिला दिवाली गिफ्ट्स में?" मैंने तिरछा दृष्टिपात करते हुए कहा।
"बात ही जाने दो।"
"अरे ऐसे कैसे, तुम लोगो को तो पूरी सैलरी बोनस मिलती है।"
"हाँ वो तो मिलती है। लेकिन उसके अलावा चार गिफ्ट्स मिले है।"
"अरे वाह, बता बता, क्या क्या मिला?"
"क्या बताऊ भाई, मुझे लगता है दिवाली के समयकाल में टिफिन के डिब्बों पर बेन या टिफ़िनमेकर कम्पनियो पर सेंक्शंस लगने चाहिए।"
अब मुझे कुछ कुछ अंदाजा आ गया पर फिर भी पूछा, "क्यों ? ऐसा क्यों ?"
"अरे चार अलग अलग लोगो ने अलग अलग रंगबिरंगी प्लास्टिक की पन्नी में लपेटकर टिफिन के डिब्बे ही गिफ्ट दिए है। अब मैं अकेला आदमी चार डिब्बों का क्या करूँगा? मैंने सारे olx पर बेचने डाले है।"
"अबे ऐसा कौन करता है। तू किसी और को गिफ्ट कर दे, वो राजी होगा।"
"यह भी अच्छा सुझाव है। एक तो आपको ही दूंगा, एक प्रीतम को दे दूंगा।"
अब इसको क्या समजाऊँ, मेरे खुद के घर दो डिब्बे आए है, जबकि मैं तो कभी भी लंच का टिफ़िन ले ही नहीं जाता हूँ। फिर भी अगले को वापिस olx के ही फायदे सुनाकर अपने घर आने वाले डिब्बे से मुक्ति पाना सर्वोत्तम समजा।
"वैसे यह नौकरी है तो ग़ुलामी।" गजा बात को दूसरी और ले जाते बोला।
मैंने उसकी इसी ज्वलंत बात से सिगरेट सुलगाई, और पूछा "वो कैसे?"
"देखो एक तो हर बात के लिए ऊपरी अधिकारी से सलाह करनी पड़ती है। दूसरा अपना प्रतिपल ऊपरी के फायदे में खर्च होता है। तीसरा, स्किल अपनी और उसका लाभ किसी और का। चौथा, शेठ और काम करनेवाला दोनों ही एक दूसरे को बेवकूफ ही समझते है। पांचवा, जब छुट्टी चाहिए तब कुछ न कुछ अलग और प्रभावकारी बहाने ढूंढते रहना पड़ता है। छठ्ठा, बिना गलती के भी कई बार डांटे सुननी पड़ती है। और भी कई सारे है, गिनाने बैठु तो सुबह हो जाएगी।"
"क्या बात है गजा ! तू तो पॉइंट टू पॉइंट बाते करने लगा है आज। देख भाई ! कौए सारे काले होते है तो इसका अर्थ यह नहीं की सारे बराबर होते है। नौकरी के नुक्सान है तो कुछ अच्छे फायदे भी है।"
"जैसे कि ?"
"कम्पनी मालिक चाहे जितना घाटा कर ले, तुम्हे अपनी सैलरी टाइम से मिल जाएगी।"
"और..."
"और, थोड़ी सी पॉलिटिक्स आती हो तो नौकरी में ही अपने सहकर्मचारियों के बिच अपना कद बढ़ाओ, और मालिक के थोड़े करीब जाकर उसका स्नेह अगर पा लिया तो फिर तो मजे ही मजे।"
"वो भला कैसे?"
"देख कम्पनी वाले की पहचान है, उतनी ही पहचान तुम्हारी भी बनेगी। कम्पनी के साथ साथ तुम अपनी खुद की पहचान को पेरेलल लेते हुए चलो। या फिर अपनी स्किल्स से मालिक को अपनी लत लगा दो। फिर वो तुम पर लाखो खर्चने को भी तैयार रहेगा। वो तो तुम्हे देखना है की नौकरी को ग़ुलामी समझनी है या अवसर (opportunity) । देखो नौकरी करने का भी एक लहजा है, एक आर्ट है। स्वयं को इतना सक्षम दिखाना पड़ेगा, की अगले को तुम्हारी आवश्यकता हो, तुम्हे उसकी नहीं।"
"यह सब लिखने-बोलने के लिए अच्छा है। वास्तविक नहीं है। मैंने ठान लिया है, पंद्रह दिन बाद का रिज़ाइन मार दिया है, अपना खुद का ही काम शुरू करूँगा।"
"बढ़िया है, फिर मेरे को रख ले तेरे यहाँ।"
"आप पोसाओगे नहीं मुझे।"
"देखा.. इसे कहते है नौकरी करते हुए कद बढ़ाना।"
"फिर भी नौकरी मतलब गुलामी...!"
"चल फिर एक बात बता, सब लोग अपना काम करने लगेंगे तो नौकरी कौन करेगा? और यह बता, तू अपना नया काम शुरू कर रहा है मतलब तेरे यहाँ जो काम करने आएगा, तू उनको गुलाम समजेगा?"
"नहीं मैंने ऐसा कब कहा?"
"फिर तू तो मानता है न कि नौकरी मतलब गुलामी?"
"चल एक बात बता, मान ले की तेरे को कोई अर्जेन्ट काम है तो तेरे बॉस का कितना ही इम्पोर्टेन्ट काम हो छोड़कर अपना काम पहले करता है न?"
"हाँ! अपना काम भी तो इम्पोर्टेन्ट होता है। वो तो ऑन ड्यूटी भी पहले करना पड़ेगा।"
"फिर जब तुझे तेरा बॉस नहीं रोकता है तो ग़ुलामी कैसे हुई?"
"पर भाईसाहब! नौकरी का एक सिमित दायरा होता है, उसीमे रहना पड़ता है। कम्पनी के कोई नियम कानून होते है वे मानने पडते है।"
"तो कल को तू अपने खुद के धंधे में कोई नियम कानून रखेगा ही नहीं? रात के बारह बजे तक शटर खोलेगा? देख सिम्पल फंडा है, सीधी सी बात है। नौकरी में भी खुद के धंधे जितनी लगन लगाओ तो स्वयं को ऊपर उठा सकते हो। तुम्हारी कीमत तुम्हे स्वयं ऊँची उठानी पड़ेगी। लोगो को तुम्हारी स्किल्स से ज्यादा तुम्हारी कदर होनी चाहिए। व्यवहार जिसे कहते है वह निभाना पड़ेगा। जैसे धंधे में कई जगह लेट-गो करते है ठीक उसी प्रकार नौकरी में भी कुछ उन्नीस-बिस का फर्क सम्हालना पड़ता है। यह तो एक मानसिकता बंध गई है की नौकरी मतलब गुलामी। नौकरी के प्रति दृष्टिकोण की आवश्यकता है की नौकरी तुम्हे अवसर देती है एक अच्छा-खासा अनुभव प्राप्त करने का। नए सम्बन्ध स्थापित करने का, नौकरी स्वयं को शिखर तक पहुँचाने का प्रथम पायदान है। हाईकोर्ट वगैरह जगहों पर जज जितनी ही वेल्यू प्यून की भी होती है, क्योंकि बहुत से व्यवहार प्यून सम्हालता है। बड़े बड़े बिज़नेसमैन ने नौकरी ही की है। क्योंकि नौकरी हर तरह के अनुभव सिखाती है, मैनेज करना सिखाती है, समय का मूल्य समझाती है। नौकरी करने वालो के प्रति हीनभावना नहीं आदरभाव होना चाहिए, भले ही sbi का कर्मचारी हो। देखो, कभी कभी कर्मचारी अपनी निजी परेशानियों के साथ नौकरी करे तब थोड़ी समस्या पर वह समस्या उस कर्मचारी ने स्वयं खड़ी की है क्योंकि वह सैलरी इसी बात की तो लेता है की वह अपनी स्किल और समय दोनों वहां देता है। समस्या वहां है जब कोई नौकरीयात कर्मचारी अपने पुरे मन और लगन से काम न करता हो। एक दृष्टिकोण से देखे तो नौकरी स्वयं ही एक विशाल धंधा है, जहाँ लोग अपनी स्किल और समय बेचते है। यह तो कुछ लोगो ने बस एक भ्रान्ति खड़ी कर दी है, की नौकरी का अर्थ है गुलामी। भारत में आज के समय सबसे ज्यादा मांग 'स्किल्ड वर्क फ़ोर्स' की है। विदेशो में यह मांग थोड़ी ज्यादा है, और मूल्याङ्कन भी भारत से थोड़ा ज्यादा है, इसी लिए भारत की स्किल्ड वर्क फोर्स भारत से बाहर अपनी स्किल और समय बेचते है, तुम्हे धंधा करना है अवश्य करो पर यह मानसिकता भूलनी होगी की नौकरी अर्थात ग़ुलामी। जब जब तुम नौकरी करने वालो को गुलाम कहोगे तब तब भारत की प्रगति पर तुम स्पीडब्रेकर लगा रहे हो। कई नौकरी करनेवालो के मुख से सुनता हूँ की कब तक यह गुलामी करनी पड़ेगी। मुझे लगता है कि इनमे नौकरी करने का ही सामर्थ्य नहीं है तो यह खुद का धंधा क्या खाख करेंगे? जब इनसे अपनी स्किल और समय ही ठीक से नहीं बेचा जा रहा तो धंधे में तो यह लोग क्या ही उखाड़ेंगे? खेर, सबकी अपनी चॉइस और पसंदगी होती है। कोई कोई तो नौकरी करते हुए साइड में अपनी प्रगति का अलग पथ निर्माण भी कर लेता है तो कोई मेरे जैसा आलसी नौकरी में ही अपना कद बढ़ाकर कुंडली मारकर बैठ जाता है। देखो जीवन में सिर्फ किसी एक स्किल के भरोसे भी नहीं रहना चाहिए, all-rounder की वेल्यू सबसे ज्यादा होती है। "
"बाबा जी बस करो..!" इतने लम्बे वक्तव्य से गजा परितृप्त होते हुए त्राहि पुकार उठा। और हम भी उठ गए, क्योंकि दूसरे दीपावली के दूसरे दिन यानी दो तारीख को हमारा गुजरातियों का नया साल होता है, विक्रमसंवत बदलता है, अश्विन की समाप्ति और कार्तिक की शुक्ल एकम को "पडवो" कहा जाता है, हालाँकि सारी ही एकम को पडवो ही कहते है।
सुबह चार बजे लोग उठकर एकदूसरे के घर जाकर राम-राम करते है। मैं थोड़ा लेट हो गया था, फिर भी छह बजे मैंने सबके घर जाकर बड़ो से आशीर्वाद लिए, और एक स्नेही मित्र के घर पर टेबल पर रखा सिगरेट का पैकेट जेब में डाल लिया। खबरदार किसीने इसे चोरी कही तो। एक रिवाज है, लोग एक दूसरे के घर जाते है, चाय, ठंडा, पीते है, शाम का समय हो तो वो लालबोतल भी पी जाती है। हर घर पर टेबल पर कुछ ड्रायफ्रूट्स, मिठाइयाँ, नास्ते, रखे रहते है। पास में ही सिगरेट्स का पैकेट और ऐश-ट्रे भी रखी जाती है। सबके घर पर चाय को प्राथमिकता दी जाती है। सुबह सुबह मैंने लगभग नो-दस कप चाय पी। फिर दिनभर चाय से तो घृणा ही हो चली थी। शाम को जितने घर गया वहां कोल्ड्रिंक्स थे। रात होते होते झुकामने घेर लिया। गला जलने लगा, सर भारी हो गया, और नाक बंद।
लेकिन फिर भी आज रविवार को भी अपन नौकरी पर हाजिर है। चलो फिर, कल से कल की देखेंगे।