दाता वहां बनना चाहिए जहाँ आवश्यकता हो... || One should become a donor where needed...

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आज का दिन भी कुछ लिखे बिना ही गुजरा..! क्या करे, दीपावली की लम्बी एक दिन की छुट्टी के बाद पुनः ऑफिस में अपना पदसंचालन जो करना था। और ऑफिस में हाजिर होते ही वो जो "दीपावली के बाद देखेंगे" नाम पर टाले गए काम थे, उनसे तुरंत ही रूबरू होना पड गया। दिनभर व्यस्तता के पश्चात अभी ब्लॉग खोलकर देखा, पता चला की कोई भी शेडयूल्ड़ पोस्ट भी नहीं है, ड्राफ्ट्स में कुछ अधकचरा ज्ञान टहल रहा था जिसे आज की स्ट्रीक टूटती बचाने के चक्कर में पोस्ट भी नहीं कर सकता। खेर, प्रतिदिन कुछ न कुछ लिखने के नाम पर, और अन्य व्यस्तता ओ के कारण जब वांचन शून्य हो जाए तब सबसे बड़ी समस्या आ खड़ी होती विषयो और बातो के आभाव की।


फिर मैं वही लिखता हूँ जो मैं करता हूँ। बस थोड़ा सा पर्दा बनाए रखता हूँ। मेरी एक आदत है, अच्छी है या बुरी नहीं जानता, पर मैं अपना काम करते हुए कानो में ब्लूटूथ लगाकर यूट्यूब पर जो भी सामने आए प्ले कर देता हूँ। कुछ याद रह जाता है, कुछ भूल भी जाता हूँ। एक पुराना यूट्यूबर है, उसकी विडिओ पता नहीं कैसे फीड में आ गई, चला दी। भाई बाते अच्छी-सच्ची करता है, पर थोड़ी गाली-गलोच करता है। यह जो गालियों का कल्चर चल पड़ा है न वह वास्तव में गंभीर है। एक वो समय रैना का शो है युटुब पर, "INDIA'S GOT LATENT"... INDIA'S GOT TALENT की सस्ती कॉपी। है तो यह शो भी पाश्चात्य अनुकरण पर, यूट्यूब पर धड़ल्ले से चल रहा है। मुझे वास्तव में आश्चर्य यह होता है की बाप-बेटा साथ में इतनी गाली-गलोच और अपमान कैसे सह लेते है? अरे हाँ ! आजकल अपमान के लिए थोड़ा मॉडर्न और सोफिस्टिकेट शब्द भी तो प्रचलन में है, "ROASTING"... रोस्टिंग को मैं समझता था शेकना, या भूनना.. लेकिन इसे अब आक्रामक आलोचना के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। लोग भयानक अपमान को भी रोस्टिंग के नाम पर हंसी-ठिठौली में ले लेते है। पता नहीं, मुझे जावेद अख्तर की वो बात बड़ी पसंद आई की जब तुम्हारे पास अपनी बात का प्रभाव बनाने के लिए पर्याप्त साधन न हो तब तुम तुच्छ भाषा का अपमानित करने वाला प्रयोग करते हो। और बात सही भी है, जोक के नाम पर गालियां ही परोसी जा रही है। फिर उसे हम लोग GENZ के नाम पर थोप देते है। और यह बात तो मैंने भी देखि है, भले ही उम्र लगभग दस साल का ही फासला हो पर अंतर बहुत ज्यादा है। जहाँ कोई कोई शब्द हम बोलके भी सोचते थे की किसी ने सुन न लिया हो, वहां यह लोग बड़ी से बड़ी गालियां खुलेआम बक रहे है। और हम तालियां पिट रहे है शायद यह सोचकरके की अब समय बदल गया है, और हमे इसी समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना है। 

अरे हां, वो रोस्टिंग विडिओ को सुन रहा था, उसने पहले तो इन बाबाओ को अच्छे से लपेटा। मेरे विचार मिलते-झूलते है उन बाबाओ के विषय में, और थोड़े बहुत इस यूटूबर से, क्योंकि उसने एक बहुत अच्छी बात कही की जब हमारे पास सारे पुस्तक उपलब्ध है फिर भी हम लोग किसी और के मुंह से उसने जो समझा वह सुनने जाते है न की उस पुस्तक को पढ़कर हमने क्या समझा। हमारे पास रामायण है, महाभारत है, वेद है, पुराण, उपनिषद, उनकी टिकाए है, पर फिर भी उन्हें डायरेक्ट समझने के बदले हमे एक बिचौलिया फिर भी चाहिए होता है। गुरु शब्द अलग है, मैं गुरुओ का अवश्य ही आदर करता हूँ पर यह जो बिचौलिए है, उन्हें देखता हूँ तब मुझे लगता है PK जैसी मूवी बनाने की हिम्मत नहीं चाहिए, जरूरत होनी चाहिए। हम खुद ही किसी पर अंधा विश्वास रखकर उसके नजरिये से नैतिकता को देखने लगते है। एक और अच्छी बात थी उस विडिओ में। दान करने की.. बात तो सच है की हम कई बार इन बाबाओ को बड़ी बड़ी रकम दान में दे देते है ताकि वे उन रुपियो से समाज को सम्हाले। लेकिन होता क्या है, बाबा वॉल्वो में घूमता है, और हम स्प्लेंडर पर। भाई जब तुम्हे दान करना ही तो स्वयं ही करो न। सालभर एक निश्चित रकम इकट्ठी करो, और साल के अंत में या कोई निश्चित तिथि पर जरूरतमंद को दे दो। पर लोग बिचौलिए को देते है, जबकि बिचौलिया भी दानादि प्रवृत्तियाँ करता है, पर बीचमे अपना कट रख लेता है। वरना वह तो बाबा है, सन्यासी है, त्याग कर चूका है, उसे क्या आवश्यकता है बड़ी बड़ी गाड़ियों की, ढाई ढाई लाख के पर्स रखने की। अभी दीपावली पर हमारे यहाँ साधुओ के भेष में बड़ा बड़ा झुण्ड उमड़ आता है बाबाओ का। दीपावली के काम की कुछ अधिक ही व्यस्तता और तनाव के चलते मेरा भी मस्तिष्क कुछ उष्णता के मानदंडों से ऊपर था। तभी एक भगवा धारी, कपाल पर पीला रंग लगाया हुआ, हाथ में रुद्राक्षों की बड़ी माला, और कंधे पर झोली.. सीधा ही मेरी केबिन में आ धमका.. "महादेव हर..." मैं भी एक झटके आए इस आगंतुक को देखकर चौंक गया। देखो साधू और वादी में भेद होता है। हमारे यहाँ वादी लोग है, जो भेष धारण करते है, और मांगकर खाते है। खाते कम है, फूंकते ज्यादा है। कभी तो यह लोग पुलिस के भेष धारण करेंगे, कभी साधु का। ज्यादातर साधु का ही स्वांग रचते है। और आजकल लोग भी कुछ अधिक धार्मिक हुए है तो इनका भी अच्छा काम चल जाता है। तो हुआ कुछ यूँ था की सुबह से तीन-चार साधुका भेषधारी वादियों को कुछ कुछ पैसे दे चूका था, यह लगभग तीसरा-चौथा था। मैं भी कंटाल चूका था, तो दस की नॉट देकर हाथ जोड़े.. अब इसे लगा मैंने भक्ति में हाथ जोड़े है तो यह तो च्युंगम की तरह चिपका, "अरे बच्चे दिवाली का टेम है, साधू तेरे द्वार आया है, इस में क्या होगा।" और मेरा माथा गया, दस की नॉट तो जेब में डाली, और पांच का सिक्का निकाल कर देने लगा। अब अगला असमंजस में, थोड़ा क्रोध में बोला, "मजाक क्यों कर रहा हैं, नहीं देना है तो मना कर दे।" मैंने वापिस पांच का सिक्का जेब में डाला, और दो रुपए का सिक्का निकालकर आगे किया। अगला और क्रोध दिखाते हुए बोला, "साधू का अपमान कर रहा है तू, त्योहारों के समय हमे भी बड़ी आशा होती है।" तब मैंने कहा कि, "साधू हो न, सन्यासी?"

"हाँ" अपनी जटाओ पर हाथ फेरते उसने कहा।

"बाबा ! त्याग और संतोष क्या होता है जानते हो।" अब मैंने उसकी चुटिया पकड़नी शुरू की। लेकिन तभी हमारा सिक्युरिटी गार्ड दौड़ते हुए आया, और उस को बाहर जाने को बोलता हुआ मुझसे कह पड़ा, "माफ़ करना, थोड़ी देर के लिए गेट से हटा तो यह ऑफिस में घुस आया।"

"बच्चा ! त्योहारों में बड़ा मन रख, साधू को खुश रखेगा, वो तुझे खुश रखेगा।" उसने अवकाश की और हाथ किया, और मेरे गले की रुद्राक्षकी माला पर उसकी नजर पड़ी तो बोला, "तू तो महादेव का भक्त दीखता है, फिर ऐसा बर्ताव क्यों करता है?"

"अरे बाबा ! जब मैंने दस दिए तो ले लेने थे.. आपके मन में अधिक की लालसा हुई तो महादेव ने ही मुझे प्रेरणा दी की उनका भक्त मतलब आप त्याग और संतोष के पथ से भटक चुके हो तो उनकी ही प्रेरणा से मैंने दस के बदले दो रूपये दिए। और अभी अभी मुझे एक प्रेरणा और हुई है की अब आपके गुस्सैल वचनो को सुनते हुए साधू की शांत और निर्मल प्रकृति को जो आपने लांछन लगाया है तो अब तो यह दो रुपए भी नहीं दे रहा, लेकिन यह लो मिठाई खा लेना।" और मैंने एक सोनपापड़ी का डिब्बा उसे दे दिया।

अगले ने एक क्रोधपूर्ण दृष्टिपात मुझ पर किया, और जाने लगा। तो उसे और छेड़ने के लिए मैंने चौकीदार को पचास की नॉट दी और कहा "काका सामने दूकान से बिस्कुट के पैकेट लो और इन्हे डाल दो।" पास ही सो रहे कुत्तो की और इशारा करते हुए मैंने कहा।

देखो कभी कभी मुझे क्रोध आता है तब मैं सारी सीमाएँ लांघ जाता हूँ, फिर चाहे उस प्रसंग से मुझे कोई भी उपमा-विशेषण मिले। 

खेर, दाता वहां बनना चाहिए जहाँ आवश्यकता हो। फिर भी हम कई बार आलस्य के चक्कर में दान दे देते है जिन्हे उनका सदुपयोग करना नहीं आता।

चलो यार ! ऐसे बाबाओ से तो रोज का पाला पड़ता, सप्ताह में दो बार तो इनसे वाद-विवाद न हो तो वह सप्ताह मुझे ही अब अधूरा लगता है। बाकी कल देखेंगे... अभी चलता हूँ।

|| अस्तु ||

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