वो चाकू और खरबूजे वाली बात है प्रियंवदा..! कटता खरबूजा ही है, खरबूजा रसपूर्ण है, भावनाओमे बहता है, उसका आकार (व्यक्तित्व) बड़ा दीखता है, पर वह कठोर नहीं है, इसलिए कटता है। कैसे होगा? रस से सराबोर है, उसमे कठोरता कहाँ पनपेगी? कठोरता भी ऐसे ही थोड़े आती है? तपना पड़ता है, हथोड़े की मार को सहना पड़ता है, फिर भी अगर कहीं भावना की कोई दरार रह गई तो फिर से तपाया जाएगा, फिर से टीपा जाएगा। तब जाकर एक नक्करता-कठोरपन आता है। कुछ भी सरल कहाँ है? बाबा फंनीरुद्धाचार्य ने आज ही वॉट्सऐप से ज्ञान प्राप्त कर रील स्वरुप में मुझे दर्शन देते कहा, "जब तक वो वेंटिलेटर की लकीरे उतार-चढाव कर रही है तब तक जीवित हो, जैसे ही एक सीधी रेखा में चलने लगी तो मृत्यु है, वैसे ही जीवनमे उतारचढ़ाव है तभी तो जीवन है, सरल सीधी रेखा में चले फिर तो मृत्यु ही है वह..!" वाह बाबाजी वाह.. धन्य हो गया मैं इस अमूल्य ज्ञान को प्राप्त कर के।
ऐसे ही रील्स की दुनिया में लोगो के अच्छे अच्छे तर्क भी मिल जाते है। एक लड़के ने बहुत अच्छी बात कही, हम पहले प्रेम को भूल क्यों नहीं पाते? ऐसा तो है नहीं की उसके बाद कभी फिर से प्रेम(आकर्षण) नहीं होता या नया सम्बन्ध नहीं बनता। उसका कारण है की वह प्रथम बार विकसित हुए भाव थे, जो हमे याद रह गए। पहली बार जो भी हुआ हो हमारे साथ, हम कभी नहीं भूलते। उस प्रथम प्रिया से लाख गुना अच्छी और सुंदर कोई दोबारा जिंदगी में आए तब भी उस प्रथम अनुभव की स्मृतियाँ हम नहीं भूलते.. प्रथम अनुभव होते ही ऐसे है।
प्रियंवदा ! मैं एक भूल को बार बार दोहरा रहा हूँ.. कविता के उद्गम को जानने की उत्कंठा। मैं भूल जाता हूँ, कविता को पढ़ते हुए उसके रचनाकार की मनोस्थिति को जानने को उत्सुक हो जाता हूँ। जबकि उसकी रचना से अपनी स्थितिओ की तुलना करनी होती है। कविता तो बहते पानी सी होती है, उसकी कविता में छिपे मर्म को पहचान कर अपनी स्थितिअनुसार उसे समझना और अपने भीतर कोई बदलाव अनुभव करना होता है। मुझे यह रचना से ज्यादा रचनाकार की मनोस्थिति जानने की जो उत्कंठा होने लगती है उसका कारण है कलापी की जीवनी पढ़ी है मैंने, या पढ़ता रहता हूँ..! पीछे की कहानी जाननी तब जरुरी बनती है जब कविता का मर्म आप समझ न जाओ। वैसे भी मर्म समझ गए तब तो बैकग्राऊँड जानने कि जरूरत ही कहाँ है? पर जब मैंने कविता पढ़ने से पहले कलापी की जीवनी पढ़ी, उनके साथ घटित हुए प्रसंगो जाना, और उसके पश्चात उनकी कविता पढ़ी तब वह अनुभव बहुत अलग था, तब मैं उन कविताओं में स्वयं को अनुभवित कर पा रहा था।
अपनी गलतियां स्वीकारना आसान है, क्योंकि स्वीकारते है वे नया सीखते है प्रियंवदा। बस यह सीखना वो सीखने वाली उम्र में सीख लिया होता तो स्थिति कुछ और ही होती। है न... निकला कुछ अनुभव की टोकरी से...(LOL) मुझे लगता है मैं जो चीज जिस समय करनी थी उस समय नहीं करता, लेट हो जाता हूँ। वैसे कहीं पहुंचना हो तो पांच मिनिट पहले ही पहुँच जाता हूँ, पर कोई निर्णय लेना हो तो सबसे आखरी में मैं ही अकेला खड़ा होता हूँ।
प्रियंवदा ! यह सब तो जीवन का एक नया पन्ना पलटने जैसा है। प्रतिदिन उत्तरायण के डोर के तरह उलझना भी है, और समय रहते सुलझना भी..! अच्छा कभी किसी को कोई चीज सीखानी हो तो हम गुस्सा क्यों करते है? शायद एक ही चीज को बार बार रिपीट करने के कारण? या फिर हमने शुरू से सीखाने वाले को क्रोध करते देखा है, उसका अनुकरण हो जाता है? वैसे मुझे लगता है हमे एक आदत है, किसी काम को जो हम कर चुके है उसे दूसरा कोई व्यक्ति एक ही बार में ठीक से कर देना चाहिए। लेकिन हम जिस काम को हररोज कर रहे है, जिस काम की हमे अच्छी प्रेक्टिस है, वो काम को दूसरे को करता देख हमारी उत्सुकता भी चरम पर होती है, और इसी कारण से क्रोध भी उपजता है अगर वह नाकाम रहा तो, या ज्यादा समय ले रहा है तो।
ठीक है फिर, आज इतना ज्ञान बहुत है। बाकी कल बाटेंगे अगर ओवर-ज्ञान हो गया तो..