प्रियंवदा के प्रति ऋणस्वीकार वाले लेख पर बहुत भिन्न भिन्न... हाँ मतलब अलग अलग प्रतिक्रियाए मिली..! वैसे प्रियंवदा ने तो खूब सराहा है, लेकिन अन्य मित्रो को यह भाषा शैली थोड़ी विचित्र मतलब अजीब मालुम हुई..! क्योंकि यह संस्कृत मूल के शब्द अब व्यवहारु नहीं रह गए है। अब इस विषय को भी लम्बा खिंचा जा सकता है पर ना..
तो आज की डायरी में नोंधा जाए की आज दिनभर अपनने कुछ भी नहीं किया, न कुछ नया पढ़ा है (yq छोड़ कर), न कुछ लिखने का सुझा है, न ही कोई नवीनतम विचार.. बस वही दिवाली से पहले वाली ऑफिस-ऑफिस खेलने वाली जिंदगी..! अच्छा, वो नौकरी वाले लेख में मैंने नौकरी के मोटा-मोटी फायदे तो गिनाए थे, पर एक बात छूट गई थी, वो थी 'जॉब-पॉलिटिक्स'.. अब जहाँ ज्यादा स्टाफ होता है न वहां पॉलिटिक्स भी खूब होती है। अच्छा यह जॉब-पॉलिटिक्स में सबसे कूदकर आगे आता है "चमचा"... अब मुझे यह शब्द पसंद तो नहीं क्योंकि मैंने भी एक व्यक्ति को यह काम सौप रखा है जो मुझ तक इनसाइडर खबरे पहुंचाता है। कभी कभी हम इतने भावनाविहीन हो जाते है की सबकी खबरे मंगवाते है। और खबरे मंगवाने का तरीका भी बहुत कैज़्युल है, एक बोत्तल... सबसे यारी दोस्ती रखने की, सब का हाल-चाल जानने का, और थोड़ा थोड़ा सब पर अधिकार भी बनाते जाने का। कई बार इस पॉलिटिक्स का फायदा होता है, लेकिन नुक्सान भी झेलने पड़ते है। नुकसान इन ध सेन्स की एकाध एक्स्ट्रा बोतल का खर्चा और क्या.. यहाँ सबको राजी रखना पड़ता है, सबके पक्ष में रहना पड़ता है। किसी के पक्ष में खुलेआम रहते है, तो किसी को सूमड़ी में कहा जाता है कि "मैं तेरे ही साथ हूँ.." कभी कभी किसी को पगार बढ़ाने की लालच में दो महीने दबाकर काम करवाया जाता है, तो कभी किसी का हाल्फ डे भी काट लिया जाता है। "ओवरटाइम? वो क्या होता है? वो तो जब तुम ऑन-ड्यूटी अपने काम से बाहर गए थे तब हमने रोका था क्या?" और कभी कभी तो ऐसे ही अकारण एक-दो हजार बाँट दिए जाते है। 'भंडारा' अलग.. यह भंडारा शब्द मेरे लिए बहुत नया था... कभी सुना भी न था, तो पहली बार तो मुझे लगा था कोई चीज-वस्तु या कोई मशीन का नाम होगा..! अरे पहली बार जब "कुलचा" सुना तब मुझे भी उतना ही आश्चर्य हुआ था जितना गुजरात के बाहर वालो को फाफड़ा या थेपला शब्द सुनकर होता होगा। कुलचा शब्द तो पर्ची पर लिखवाकर दुकान पर गया था। और उतना ही अजीब लगा था 'छोले' भी.. अब गुजराती में छोला थोड़ा शब्दफेर करो तो 'छीलना' हुआ.. मुझे तो यह समझ आया था की छोले-कुलचे मतलब कोई खाने की चीज है जो छिली हुई है..! ऐसा ही एक बात मोमोज़ के साथ हुआ था.. लगभग २०१९ या २०२० में मैं हिमाचल घूमने गया था, याद तो नहीं आ रहा पर शिमला, या मनाली में घूमते हुए एक जगह लिखा था "मोमोज़".. मामा सुना था, मामी सुना था, मम्मी सुना था.. लेकिन बहुवचन वाला मोमोज़ नहीं सुना था.. देखा तो लगा कच्चे गुंदे हुए आटे जैसा कुछ खा रहे थे..! दुकानवाली आंटी को पूछा, उन्हें तो बेचना था बोली "बहुत अच्छा है, टेस्ट करो.." अब कोई मोमोज़ का आशिक ऑफेंड न हो जाए बस इसी वजह से चुप हूँ... वैसे मुझे घर से बाहर कभी भी भोजन के प्रति अरुचि नहीं होती..! अरे ऑफिस पॉलिटिक्स से फ़ूड ब्लॉग्गिंग पर आ गया.. ऐसा ही होता है..! फैक्ट्री में ऐसे ही अकारण ही कई बार भंडारा कर देते है, उससे लेबर राजी रहती है.. देखो भंडारे में भी एक बढ़िया चीज सिखने को मिलती है.. भंडारे में अगर चावल है तो उसे बांटने को मत खड़े रहो..! अब किसी की भूख ज्यादा होती है, लेकिन एक ही आदमी चार थाली भर चावल हजम कर जाए वह भी मेरे लिए तो नया अनुभव ही था.. और ऐसे तो बहुत लोग थे..! हालाँकि मेहनत का काम करते है तो इतनी भोजन क्षमता होना असहज भी नहीं है। खेर, ऑफिस पॉलिटिक्स में सबसे ध्यान रखने वाली बात क्या है पता है? री-वेरिफिकेशन.. अंधा भरोसा अपने खबरी पर भी नहीं रखना चाहिए, कभी कभी वो खुद की खुन्नस भी उतारता है।
तुम भी बस सुनती ही रहती हो प्रियंवदा, एक ही बात पर बना रहूं क्या? देखो सिम्पल बात है, जीवन में कई बार निष्ठुर होना भी जरुरी है.. सारे समय तुम भावनाओ में बहते रहोगे यह भी कतई योग्य नहीं है। कई बार हमे बेमन से डांट सुननी भी पड़ती है, और कभी कभी बेवजह सुनानी भी पड़ती है। कई बार यह भी सोचना पड़ता की आज कुछ काम है नहीं, तो पगार कैसे वसूला जाए..? ऐसा है, ज्यादा गंभीरता भी नही रखनी चाहिए, ज्यादा कठोरता भी नही, ज्यादा सहजता भी नही। सबसे एक पर्याप्त दूरी बनाए रखना सबसे उत्तम.. क्या है, हर मतलब से मतलब रखने वाला मतलबी भी नही होता है।
इतना बहुत है आज..!!
bhavukta shayad jivan ko kathin bna deti hai...pr insan hai to bhavnao ka hi putla naa..kya hi kiya jaa skta hai ! ab jaise aapke lekh pdhne wale aapse aapke lekh k jariye jude hai..yahi achanak kisi din aapne bina suchna k likhna bnd kr diya to pdhne wale k hriday pr kutharaghat hoga...aise hi aapka koi regular reader aapko pdhna chhor de to shayd wahi dasha aapki bhi hogi..."bhavnaye" hi to hai ki bina dekhe, mile , jane ek dusre se bandh jate hain . To fir sochiye jo hmare aaspaas rehte hai yadi unse koi aisi pratikriya mile jo bilkul apekshit na ho to kya waha bhavuk hona aur jarurat se jada bhavuk ho jana swabhavik nhi hai !!!?
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